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प्राकृत भाषा साहित्य में निरुपित शांतिमय सहजीवन की संकल्पना
सुख और शान्ति एक विशेष अनुभूति है, जिसके लिये मनुष्य को सतत . चाहना रहती है। सुख शरीर के भौतिक क्षेत्र का विषय है, जब की शांति आंतरिक है । सुख का अर्थ है - सु = अच्छी तरह से, ख = इन्द्रियों का रहना । पांच कर्मेन्द्रिय तथा पाँच ज्ञानेन्द्रिय जिस अवस्था में अच्छी तरह रह सके, तृप्ति का अनुभव कर सकें, वह अवस्था सुख की अवस्था है । शान्ति मानसिक है । मन वृत्तियों के संघर्ष से रहित, उद्वेगो से रहित और सुस्थिर होता. है, तब वह शान्त होता है और शान्ति की अनुभूति होती है।
शान्ति व्यक्तिगत तथा सामूहिक - दो प्रकार की होती है। यद्यपि और समूह अन्योन्याश्रित है । एक व्यक्ति अत्यन्त आंदोलित एवं अशान्त समाज के अंदर रहते हुए भी शांतिपूर्वक अपनी जीवनचर्या व्यतीत करता रहता है - जैसे उदाहरण कभी कभी हमें मिलते हैं, लेकिन यह अपवाद है। ..
सामान्यतः आन्तरिक शान्ति के संबंध में व्यक्ति और समूह एक दूसरे पर अवलंबित रहते ही हैं। अपनी दैनिक शान्ति प्रार्थनाओं में हम अपनी व्यक्तिगत शांति का संबंध इसी आधार पर द्यावा-पृथ्वी से लेकर जड़ एवं चेतन विश्वदेवों के साथ संयुक्त करते हैं । मेरा मन शान्त तभी रह सकता है जब मेरे चारों और का वातावरण अशान्ति रहित हो । यदि बाहर अशान्ति है तो अंदर शांति नहीं रह सकेगी। वैदिक संस्कृति में व्यक्तिगत एवं सामूहिक यज्ञ-भावना इस शान्ति का मूल आधार मानी गई है । वास्तव में शान्ति मन की एक दशा है । शान्ति भीतर से आती है, बाहर से नहीं । यदि चित्त उद्विग्न है तो बाहर शान्ति होने पर भी वह शान्ति का अनुभव नहीं करेगा।