Book Title: Bauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Author(s): Niranjana Vora
Publisher: Niranjana Vora

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Page 124
________________ मोक्ष चिन्तन का सैद्धांतिक पक्ष । ११७ चारित्र स्वरूप जो निज आत्मा है उसको मोक्ष का कारण जानो ॥३९॥ - आत्मा को छोड़कर अन्य द्रव्य में रत्नत्रय नहीं रहता इस कारण उस रत्नत्रयमयी जो आत्मा है वही निश्चय से मोक्ष का कारण है ॥४०॥ .. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । - यहाँ निश्चय नय और व्यवहार नय से मोक्ष की व्याख्या दी गई है । श्री वीतराग सर्वज्ञ से कहे हुए षड्द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व और नव पदार्थ हैं। इनमें श्रद्धा रखना और व्रतादि का आचरण करना- इत्यादि जो है सो तो व्यवहार मोक्षमार्ग है और निश्चय नय से रत्नत्रयमय निजशुद्ध आत्मा ही मोक्षरूप है। इसके लिये ध्यानमार्ग का अनुसरण भी आवश्यक है। द्रव्यसंग्रहकार कहते है - 'मा मुज्झह मा रज्जह मा दूसह' - समस्त मोह, राग और द्वेषों से रहित होकर स्थिर चित्त से ध्यान में स्थित होकर आत्मा के स्वरूप का साक्षात्कार रूप अनुभव कर सकता है। मोक्ष शब्द मुञ्च धातु से बनता है। मोक्ष का अर्थ है मुक्त होना । जीव का कर्मबन्ध से मुक्त होना मोक्ष है । शुद्धोपयोग लक्षण जो भावमोक्ष का स्वरूप है और कर्म के प्रदेशों को जुदा करने रूप द्रव्यमोक्ष का स्वरूप है वह वास्तव में जीव का स्वभाव नहीं है। किन्तु उन भावमोक्ष और द्रव्यमोक्ष से भिन्न जो फलभूत ज्ञान आदि गुणरूप स्वभाव है, वही शुद्ध जीव का स्वरूप है । और आत्मा का यह निज शुद्ध स्वरूप कर्मबन्ध के आस्रव का संवर और निर्जरा द्वारा क्षय करने पर, मोक्षरूप में प्रगट होता है । कर्मबन्धन छूट जाता है । वस्तुतः मोक्ष तो बन्धन का अभाव ही है । .. बन्धन और मुक्ति की यह समग्र व्याख्या पर्यायदृष्टि का विषय है। आत्मा का विरूप पर्याय ही. बन्धन है और स्वरूप पर्याय मोक्ष है। पर-पदार्थ या पुद्गल परमाणुओं के निमित्त से आत्मा में जो पर्यायें उत्पन्न होती हैं और जिसके कारण 'पर' में आत्मभाव (मेरापन) उत्पन्न होता है, वही विरूपपर्याय है, परपरिणति है, "स्व' की 'पर' में अवस्थिति है, यही बन्धन है और इसका अभाव ही मुक्ति है। बन्धन और मुक्ति दोनों आत्मा-द्रव्य या चेतना की ही दो अवस्थाएं हैं। जैन तत्त्व-मीमांसा के अनुसार संवर के द्वारा कर्मों के आगमन का निरोध हो जाने पर और निर्जरा के द्वारा समस्त पुरातन कर्मों का क्षय हो जाने पर आत्मा की जो निष्कर्ष शुद्धावस्था होती है, वह मोक्ष है । कर्ममलों के अभाव में कर्म बन्धन भी नहीं रहता और बन्धन का अभाव ही मुक्ति है । मोक्ष आत्मा की शुद्ध स्वरूपावस्था है । अनात्मा में ममत्व, आसक्तिरूप आत्माभिमान का दूर हो जाना ही मुक्ति है।

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