Book Title: Bauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Author(s): Niranjana Vora
Publisher: Niranjana Vora

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Page 115
________________ १०८ बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम इन सब में अधिकांश वर्णन परिपाटी अनुसार है, तब भी कहीं कहीं कवि की सूक्ष्म निरीक्षणशक्ति और उर्वर कवि-कल्पना का भी परिचय मिलता है । .... प्रत्येक ऋतुकाल में प्रकृति में सृष्टि में होनेवाले परिवर्तन का वर्णन तो प्रायः मिलता है । लेकिन यहाँ कविने प्रकृति के उपरांत मनुष्य प्राणियों और वातावरण भी अलग अलग ऋतुओं के आगमन से कैसे प्रभावित होते हैं, उसका वर्णन भी कीया है, जो कवि की सूक्ष्म दृष्टि का परिचयक है। जैसे शिशिर ऋतु का प्रभाव इस प्रकार वर्णित है - मणिदीधितदीपिकाप्रकाशे निशि कालागुरुपिंडधूपगर्ने । . विनिवेशितहंसतूलशय्यापुलिने गर्भगृहे सहेमभित्तौ ॥४०॥ ... अवतंसितमालतीसुगंधिबिलसत्कुंकुमपंकादिग्धगात्रः । - वनितभजपंजरोपगूढो युवराजशिशिरं स निर्विवेश ॥४१॥ ... ऐसे रमणीय समय में मालती की सुगंधिसे सुगंधित, कुंकुमकी पंकसे लिप्त, युवराज वज्रनाभ अपनी प्यारी कंताओं के भुजपंजरों से बद्ध हुये मणिकिरणों के प्रकाश से प्रकाशित, कालागरु के धूप से धूपित, हेम की भित्तियों से विशिष्ट भीतरे घरमें हंस के समान श्वेत रूई की शय्या पर ऋतु का आनंद लेने लगे ॥४०-४१॥ जैसे वर्षाऋतु का प्रभाव इस प्रकार वर्णित है - अभिमानमुदस्य मस्तके कामदिशं न दधौ सवस्तुके का। ... वनितां मुमुचुनिशम्य के कामपि मेघागमजां मयूरकेकाम् ॥१६॥ उस समय ऐसी कोई स्त्री न थी जो अपने अभिमान को तिलांजलि दे काम की आज्ञा का न पालन करने लगी हो और ऐसा कोई पुरुष न था जो वर्षाऋत की सूचना देनेवाले मयूरों की हृदयाहारिणी वाणी को श्रवण कर अपनी स्त्री के पास न आया हो। _ ऋतु परिवर्तन के संधिकाल को भी चातुरी से आलोकित किया है - ऋतुना समयेन तेन तीव्रादिव पद्माधिपनंदनप्रभावात् । बिजहे वलयं दिशामशेषं कृतपद्मालयवैभवक्षयेण ॥४२॥ शिशिरस्तरुषंडविप्लवानां स विधाता क्क नु वर्तते दुरात्मा । पटुकोकिलकूजितैर्बसंतो वनमित्याव्हयतीव संप्रविष्टः ॥४३।। पद्यालयों (सरोवर) के वैभव को नष्ट करने वाले उस शिशिर ऋतुने ज्योंही

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