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श्री वादिराजसूरिकृत पार्श्वनाथचरित का साहित्यिक मूल्यांकन
- इस काव्य में २३ वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के जीवन का काव्यात्मक शैली में वर्णन किया गया है। काव्य १२ सर्गों में विभक्त है। प्रत्येक सर्ग का नाम वर्ण्यवस्तु के आधार पर दिया गया है। पहले सर्ग का नाम अरविन्दमहाराजसंग्रामविजय, दूसरे का नाम स्वयंप्रभागमन, तीसरे का नाम वज्रघोषस्वर्गगमन, चतुर्थ का नाम वज्रनाभचक्रवर्तिप्रादुर्भाव, पांचवे सर्ग का नाम वज्रनाभचक्रवर्ती चक्रपादुर्भाव, छठे का वज्रनाभचक्रवर्तिप्रबोध, सातवें का वज्रनाभचक्रवर्तिदिग्विजय, आठवें का आनन्दराज्यभिनन्दन, नवम का दिग्देविपरिचरण, दशम का कुमारचरित, ग्याहरवें का केवलज्ञानप्रादुर्भाव और बारहवें का भगवन्निर्वाणगमन है ।
काव्य के सर्ग के नामाभिधान अनुसार आरंभ के सर्गों में भगवान पार्श्वनाथ के पूर्वभवका विशद निरुपण कीया गया है । अंतिम तीन सर्गोमें भगवान पार्श्वनाथ की बाल्यावस्था और किशोरावस्था, केवलज्ञान की प्राप्ति और निर्वाणगमनका आलेखन
कविने पार्श्वनाथ स्वामी के पूर्वभवों का विस्तारसे परिचय काव्य के आरंभ में दिया है । सुरम्य देश के महाराजा, उनके मंत्री विश्वभूति का वैराग्य और पुत्र मरुभूति का मंत्री बनना - आदि घटनाओं का आलेखन है। पार्श्वनाथ स्वामी अपने पूर्वभव में मरुभूति थे । उसके पश्चात् क्रमशः वज्रघोष हस्ति रश्मिवेश, वज्रनाभि,
और वज्रबाहुके पुत्र आनंद के रुप में उनका जन्म होता है। आनंद के रूपमें जन्म धारण करके तीव्र वैराग्य और तपसे तीर्थंकर फल बांधकर अंत में विश्वसेन राजा की रानी ब्रहादत्ता के पुत्र के रूप में अवतार धारण करते हैं । .... कविने प्रथम, द्वितीय और तृतीय सर्ग में क्रमशः मरुभूमि और वज्रघोष हस्ति के पूर्वभवों की नानाविध घटनाओं का विस्तार से वर्णन किया है। यहाँ सुरम्य देश, पोदनपुरनगर, अरविंदराजा - मरुभूति और राजा का स्नेह और विश्वासमय संबंध, कंमठके अत्याचार, मरुभूति का बन्धुप्रेम, अरविंद राजा का स्वयंभूमुनिसे दीक्षा लेना, मरुभूमि का वज्रघोष हस्ति के रूप में जन्म और अरविंदमुनि से उपदेश प्राप्त कर व्रतों का पालन करना और कृकवाकुसे काटने से स्वर्ग में जाना - स्वर्ग में उसकी स्थिति - आदि प्रसंगो का सुचारु ढंग से परिचय दीया गया है। .... चतुर्थ से नवम सर्ग तक श्री पार्श्वनाथ स्वामी के रश्मिवेग, वज्रनाभि और आनंद के रूप में व्यतीत कीये गये पूर्वभवों का आकर्षक शैलीमें आलेखन है, चोथे सर्ग के आरंभ में ही सुमेरु पर्वत और जंबूद्वीप के विदेहक्षेत्र के विजयार्धकी मनोहर पार्थ भूमि में विद्युद्वेग और विद्युन्माला के पुत्र रश्मिवेग का राग, क्रोध माना माया