Book Title: Bauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Author(s): Niranjana Vora
Publisher: Niranjana Vora

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Page 95
________________ बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम आधुनिक मनोविज्ञान से बहुत मिलता-जुलता है । लेश्या का सिद्धांत जैनदर्शन का अभिनव मनोवैज्ञानिक प्रदान है। लेश्या जैन पारिभाषिक शब्द है। उसका सम्बन्ध मानसिक विचारों या भावों से है । यह पौद्गलिक है । मन, शरीर और इन्द्रियाँ पौद्गलिक हैं । मनुष्य बाहर से पुद्गलों को ग्रहण करता है और तदनुरूप उसकी स्थिति बन जाती है । आज की भाषा में इसे 'ओरा' या 'आभा मंडल' कहा जाता है। आपके विचारों या भावों का प्रतिनिधित्व शरीर से निकलने वाली आभा प्रतिक्षण कर रही है । वह रंगों के माध्यम से अभिव्यक्ति होती है । लेश्या के नामों से यह अभिव्यक्त होता है कि ये नाम अन्तर से निकलने वाली आभा के आधार पर रखे गए हैं । उनका जैसा रंग है, व्यक्ति का मानस भी वैसा ही है। प्रशस्त और अप्रशस्त में रंगों का प्राधान्य है । कृष्ण, नील और कपोत - अप्रशस्त हैं, तेजस, पद्म और शुक्ल - प्रशस्त है । वैज्ञानिकों ने 'ओरा' के प्रायः ये ही रंग निर्धारित किए हैं। वैज्ञानिक परीक्षणों से यह सिद्ध हुआ है कि बाहर के रंग भी व्यक्ति को प्रभावित करते हैं। बाहरी रंगो का ध्यान - चिन्तन कर हम आन्तरिक रंगों को भी परिवर्तित कर सकते हैं। मन एक ऐसा कर्मस्थल है जहाँ से शुभ और अशुभ, सम्यक् अथवा मिथ्या सभी प्रकार के कार्य प्रस्फुटित होते हैं। मृग - मरीचिका तृष्णा का उद्भवस्थान वही है और निर्वाण की शांतिमय अनुभूति भी इसीके माध्यम से होती है । यही कारण है कि प्रायः प्रत्येक दर्शन प्रणाली में मन पर पर्याप्त विचार-विमर्श किया गया है । बौद्धपरंपरा में भी मन के संदर्भ में गहन चिन्तन किया गया है । 'मनुपुब्बंगमाधम्मा' और 'फन्दनं चपलं चित्तं' जैसे वाक्य मन के स्वरूप को भलीभाति स्पष्ट करते हैं। आगम साहित्य का यह जो दार्शनिक भाग है, उसका तो मनोविज्ञान के साथ गहरा नाता है ही, लेकिन उसकी एक विशेषता यह रही है कि आगमों में विभिन्न उदाहरणों, दृष्टान्तों, उपमाओं और लोकप्रचलित कथाओं द्वारा बड़े प्रभावशाली और रोचक ढंग से संयम, तप और त्याग का प्रतिपादन किया है। इन कथाओं में भी पात्र परिस्थिति आदि का वर्णन मनोविज्ञान के तथ्यों के आधार पर किया गया है । आगमिक कथाओं का साहित्य भी विस्तृत है, अतः यहाँ केवल थोडे ही दृष्टान्त हम देखेंगे । नायाधम्मकहाओं में से 'अण्डक' की कथा में जिनदत्तपुत्र और सागरदत्तपुत्र की संशयरहित और संशययुक्त मानसिक परिस्थिति और इसकी प्रतिक्रियारूप

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