Book Title: Bauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Author(s): Niranjana Vora
Publisher: Niranjana Vora

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Page 94
________________ प्राकृत भाषासाहित्य में मनोवैज्ञानिक निरूपण ८७ शुश्रुषा में नम्रता का भाव और करुणापूर्ण समभाव निहित है । स्वाध्याय से वृत्तियाँ शान्त हो जाती है, चित्त का भटकना कम हो जाता है । साधक अपने अन्तस्तल में उठनेवाली तरंगों से सम्यक् रीत से परिचित हो जाता है, तब चित्तका निरोध सहज होता है । और परिशुद्ध चित्त से किया गया ध्यान साधक को निर्वाणसुख का अनुभव कराता है। . समणसुत्त में भी कहा गया है कि - सद्ध नगरं किच्चा, तवसंवरमग्गलं । खन्ति निउणपागारं, तिगुतं दुप्पघंसयं ॥ तवनाराजुत्तेण, भित्तूणं कम्मकंचुयं ।। मुणी विगयसंगामो, भवाओ परिमुच्चए । - श्रद्धा का नगर, तप और संवर का अर्गल, क्षमा का बुरज बनाकर, और त्रिगुप्ति (मन, वचन, काया) से सुरक्षित. अजेय, सुदृढ प्राकार की रचना करके तपरुपी बाणों से युक्त धनुष्य से कर्म के कवचकों छेद कर (आंतरिक) संग्राम का विजेता मुनि संसार से मुक्त बनता है । मनोनिग्रह का अर्थ सिर्फ इन्द्रियदमन या वृत्तियों का निरोध मात्र नहीं है। आधुनिक मनोविज्ञान ने केवल दमन, निरोध या निग्रह को चित्त विक्षोमका कारण माना है। इससे वृत्तियाँ फिर कभी विकृत बनकर जागृत होने की पूरी संभावना रहती है । जैनदर्शन में वर्णित १४ गुणस्थानों में से ११वें गुणस्थान तक पहुंच कर साधक की पुनः पतित बनकर मिथ्यात्व गुणस्थान में आ जाने की शक्यता का स्पष्ट ' निर्देश इसी तथ्य के आधार पर किया गया है । यहाँ सिर्फ इन्द्रिय निरोध की बात नहीं है, लेकिन वासनाओं का क्रमिक क्षय करके वासनाशुन्यता और वृत्तियों का उद्दात्तिकरण भी अभिप्रेत है । वृत्तियों का उद्धात्तिकरण ही आध्यात्मिक साधना में '. 'सहायरूप बन सकता है। धर्मशिक्षण का अर्थ है मन को सद्प्रवृत्तियों में जोड़ देना। दसवेयालियमें स्पष्ट कहा है। ___ उयसमेण हणे कोहं, माणं मदद्वया जिणे । • मायं अज्जव - भावेणं, लोभं संतोसओ जिणे ॥ " - क्रोध को उपशम से, मान को मृदुता से माया को आर्जव से और लोभ को संतोष से जीतें । इस समग्र साधनापद्धति का लक्ष्य चित्त की इस वासना संस्कार एवं संकल्प - विकल्प से रहित अवस्था को प्राप्त करता है। . जैनदर्शन में लेश्या का निरूपण भी एक मनोवैज्ञानिक सत्य है, जो

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