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प्राकृत भाषासाहित्य में मनोवैज्ञानिक निरूपण
कबीर ने कहा है -
"मन सागर मनसा लहरी, बुड़े बहुत अचेत । कहहि कबीर ते बांधि है, जिनके हृदय विवेक ॥ मन गोरख मन गोविन्दो, मन ही औच्चड होइ ।
जो मन राखे जतन करि, तो आपे करता होई ॥" — चंचल चित्त सागर की ऊर्मियां हैं तो शान्त-मन अनन्त सागर है । मन पर विजय पाने का एकमात्र सूत्र है - जागरुकता, विवेकी होना । मन जब जागरूक - सावधान होता है, तब वह अपनी चंचलता पर नियन्त्रण कर लेता है।
मन पर विजय पाना कठिन अवश्य है किन्तु असंभव नहीं। अभ्यास से यह सिद्ध हो सकता है । मन को इतना खुला भी मत छोड़ो कि वह नियन्त्रण के बाहर हो जाए और उसका इतना दमन भी मत करो कि वह और अधिक चंचल बन जाए । उसका ठीक - ठीक नियन्त्रण होना आवश्यक है। जो मन असत् चिन्तन या क्रिया में प्रवृत्त होता है, उसे साधना द्वारा सत् चिन्तन या क्रिया में प्रवृत्त किया जा सकता है।
जैन दार्शनिक साहित्य में मन के स्वरूप का और भी अधिक सूक्ष्म दृष्टिसे चिंतन हुआ है। इसके साथ आध्यात्मिक उन्नति में मन का सहयोग प्राप्त करने के लिये जो तपोमार्ग का निदर्शन हुआ है, यह भी मनोवैज्ञानिक तथ्य पर आधारित है। आगम साहित्य में - आचारांग उपासकदशांग, उत्तराध्ययनसूत्र आदि में साधु
और श्रावकों के लिये तपोमार्ग का जो निदर्शन हुआ है - यह ठीक मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त पर आधारित है। जैन, बौद्ध, हिन्दु आदि धर्मो में आध्यात्मिक उन्नति के लिये मन की शांत, स्वस्थ, प्रसन्न अवस्था को अप्रतिहार्य ढंग से आवश्यक मानी है। समग्र आध्यात्मिक साधना का लक्ष्य चित्त की वासना, संस्कार एवं संकल्प -विकल्प से रहित अवस्था को प्राप्त करना है । जैनदर्शन में साधु और श्रावकों के लिये महाव्रत, अणुव्रत, शिक्षाव्रत, गुणव्रत, समिति, गुप्ति, षडावश्यक आदि और आहार-विहार विषयक जिन नियमों का आदेश दिया गया है ये चित्तनिरोध के लिये बहुत सहायक है।
आगम में तप के दो प्रकार बताये हैं : बाह्य और आभ्यंतर । ये भेद केवल औपचारिक नहीं हैं । शरीर के साथ संलग्न कठिन तपश्चर्या अथवा बाह्य तप, और मानसिक क्रियाओं को संयमित करनेवाला आभ्यंतर तप - दोनों शरीर-मन पर अपना प्रभाव रखते हैं.। बाह्य तप भी अंततः मन की शुद्धि के लिये हैं, और आभ्यन्तर