Book Title: Bauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Author(s): Niranjana Vora
Publisher: Niranjana Vora

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Page 93
________________ ८६ बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम के बिना बाह्य तप की सफलता - सार्थकता संभवित नहीं है। अनशन - उनोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रस-परित्याग, कायक्लेश और प्रतिसंलीनता - ये बाह्य तप हैं - इससे इन्द्रियों की स्वच्छंदता दर होती है, संयम का जागरण होता है, दोषों का प्रशमन होता है, और संतोष की वृद्धि होने से मन ज्यादातर शान्त बनने लगता है । चित्त अंतर्मुख बनता है। तप से शरीर स्वास्थ्य बढ़ता है, साथ साथ मनोवृत्ति और मनोवलण में भी समुचित परिवर्तन होते हैं। अनशन से व्याधिविमुक्ति, संयम, दृढता, सद्ध्यानप्राप्ति और शास्त्राभ्यास में रुचि उत्पन्न होती है। उणोदरी का प्रयोजन वात-पित-कफजनित दोषोंका उपशमन, ज्ञान-ध्यानादि की प्राप्ति है । वृत्ति-संक्षेप से भोज्य पदार्थों की इच्छाओं का निरोध, भोजनविषयक चिंता का नियंत्रण होता है, मनका बोज कम होता है और भोगलिप्सा भी क्षीण होती है । रसपरित्याग से इन्द्रियनिग्रह होता है, स्वाध्याय और ध्यान प्रति रुचि उत्पन्न होती है । कायक्लेश से शरीरसुख की एषणा में से मुक्ति और कष्ट होने पर भी मन को समत्वभाव में स्थिर करने की शक्ति मिलती है । प्रतिसंलीनता से ध्यानसिद्धि की ओर साधक आगे बढ़ सकता है । . . आभ्यंतर तप मनोवैज्ञानिक सत्य पर ही आधारित है । उसका मुख्य उद्देश मनके उध्विकरण का है । कषायों से युक्त, विक्षिप्त, चंचल मन को आध्यात्मिक विकास के मार्ग पर आगे बढ़ाने में आभ्यंकर तप सहायरूप बनता है। दोनों प्रकार के तप साथ साथ होते हैं, एक दूसरे के लिए सहायक है । वह साधक के चित्त को स्वस्थ, शांत, कषायरहित और एकाग्र बनाता है, जो आध्यात्मिक दृष्टि की साथ साथ व्यवहार जीवन में भी अति आवश्यक है । जीवन के सर्व क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए मन का नियंत्रण अनिवार्य है। मनः शुद्धयेव शुद्धिः स्याद, देहिनां नात्र संशयः । वृथा तद् व्यतिरेकेण, कायस्येव कदर्थनम् ॥ इसमें कोई संशय नहीं की मनुष्यों की शुद्धि, पवित्रता मानसिक शुद्धि से होती है, मानसिक पवित्रता के बिना केवल शरीर को कदर्थित करना योग्य नहीं प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय और ध्यान आभ्यंतर तप है। प्रायश्चित में स्वयं को देखना और रूपान्तरित करना है। स्व-दोषों का शुद्धिकरण मनः शुद्धि की और ले जाता है । विनय का अर्थ है, अपने आपको अहंकार से मुक्त करना। अहंकार को जीते बिना व्यक्ति मृदु-विनम्र नहीं बन सकता । वैयावृत्य अर्थात् सेवा

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