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बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम
प्रथम स्तर पर हम आसक्ति, तृष्णा आदि के वशीभूत हो कर की जानेवाली अनावश्यक आक्रमणात्मक हिंसा से बचें, फिर दूसरे स्तर पर जीवनयापन एवं आजीविकोपार्जन के निमित्त होनेवाली त्रस हिंसा से विरत हों। तीसरे स्तर पर विरोध के अहिंसक तरीके को अपनाकर प्रत्याक्रमणात्मक हिंसा से विरत हों । इस तरह जीवन के लिए आवश्यक जैसी हिंसा से भी क्रमशः उपर ऊठते हुए चौथे स्तर पर शरीर और परिग्रह की आसक्ति का परित्याग कर सर्वतोभावन. पूर्ण अहिंसा की दिशा में आगे बढ़े।
__ जैन दर्शन में अहिंसा और सर्व जीवों प्रति आत्मभावना का विशेष रूप. से उपदेश दिया गया । वनस्पति भी सजीव होने के नाते जीव-जन्तुओं के साथ, उसके प्रति भी अहिंसक आधार विचार का प्रतिपादन किया गया । एक छोटे से. पुष्प को शाखा से चूंटने के लिए निषेध था - फिर जंगलों काटने की बात ही कहां? जल में बहुत छोटे छोटे जीव होते हैं - अतः जल का उपयोग भी सावधानी. से और अनिवार्य होने पर ही करने का आदेश दिया गया । रात्रि के समय दीप जलाकर कार्य करने का भी वहाँ निषेध है। दीपक की आसपास अनेक छोटे छोटे जीव-जंतुं उड़ने लगते हैं और उसका नाश होता है, अतः जीवहिंसा की दृष्टि से दीपक के प्रकाश में कार्य करना निंदनीय माना गया ।
जैन दर्शन की आचारसंहिता के निषेधों के कारण स्वाभाविक ढंग से ही वनस्पति, जल, अग्नि, आदि तत्त्वों का उपयोग मर्यादित हो, गया । जिस से छोटे छोटे जीव-जंतु और प्राणियों की और वनस्पति की रक्षा होती है तथा पर्यावरण की भी सुरक्षा होती है।
पंद्रह कर्मादान के संदर्भ में लकडी आदि काटकर कोयले आदि बनाने से वनस्पति का भी नाश होता है और जलने से वायु भी प्रदूषित होता है। पशुओं को किराये पर देना या बेचना भी अधर्म्य माना गया है । यहाँ अहिंसा में अनुकंपा
और सहिष्णुता का भाव भी निहित है । पशुओं के दांत, बाल, चर्म, हड्डी, नख, रों, सींग और किसी भी अवयव का काटना और इससे चीज-वस्तुओं का निर्माण करके व्यापार करना निषिद्ध है। बौद्ध धर्म में अहिंसा :
गौतम बुद्ध ने भी दुःखक्षय और शांति स्थापना के लिये अहिंसा की आवश्यकता बताई है।