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बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम
(४) समाज और समाज का संघर्ष : जब व्यक्ति सामान्य हितों और सामान्य
विश्वासों के आधार पर समूह या जूथ बनाता है तो सामाजिक संघर्षों का उदय होता है । इसका आधार आर्थिक और वैचारिक दोनों ही हो
सकता है।
ये विषमतायें दूर करने के लिये हमें राग-द्वेषादि कषायों को भी क्षीण करना होगा । इस कषायों के ही कारण व्यक्ति और समष्टि का जीवन अशांतिमय बनता है । जैसे -
ममत्वं रागसम्भूतं, वस्तुमात्रेषु यदि भवेत् ।
साहिंसाडक्तिरेषेव, जीवोडसो बध्यतेडनया ।
वस्तु मात्र के प्रति राग से जो ममत्व उत्पन्न होता है, वह हिंसा है और वही आसक्ति है । उसीसे यह आत्म आबद्ध होता है ।
इसके साथ मनुष्य के मनमें रहे हुए ममत्व, ईर्ष्या, क्रोध आदि कषायों, : तृष्णा-मोह आदि भी सब अनिष्टों के मूल में हैं। विषयभोंग की वासना सारे संघर्षों की जननी हैं।
प्रतिशोध की जो भावना है, वैर से वैर का बदला लेने की जो वृत्ति है, इससे कितना आतंक फैलता है, इसका हम खुद आज अनुभव कर रहे हैं । अहंकार और स्वार्थवश साम्राज्यवादी देशों का युद्ध का जो माहोल. आज हम देखते हैं, वह अत्यंत आघातप्रेरक है । हम टी.वी. में देखते हैं कितने मासुम बच्चों अपने मातापिता के साथ अपना प्यारा वतन और बचपन छोड़कर कहीं अनजान स्थलों पर जा रहे हैं - कितना आतंक है उनके मनमें, वे बड़े होकर क्या बनेंगे? आतंकवादी ही तो बनेंगे।
और युद्ध से प्राप्त होनेवाला विजय, जैसे युधिष्ठिर कुरक्षेत्र के युद्ध में विजय पाने के बाद श्रीकृष्ण से कहते हैं -
जयोडयम् अजयकारो केशवं प्रतिभाति मे ।
हे केशव ! यह विजय मुझे पराजय से ज्यादा दुःखदायक लगता है। कलिंग के युद्ध की विभिषिका के कारण अशोक के हृदय ने विजय के आनंद के अतिरिक्त दारुण वेदना का ही अनुभव कीया था। हिरोशीमा और नागासाकी की घटना हमारे सामने हैं । ऐसि विजय हिंसा की परंपरा को जन्म देते हैं। और अमरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर से जो खून बहाया गया - कहाँ तक बहता रहेगा... मालूम नहीं ।