Book Title: Bauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Author(s): Niranjana Vora
Publisher: Niranjana Vora

View full book text
Previous | Next

Page 88
________________ भगवान महावीर और समाजवाद की उपभोग-परिभोग की हरेक प्रकार की चीजों की मात्रा और प्रकार निश्चित किये जाते हैं । इस तरह बाह्य चीज-वस्तुओं के संयमित उपयोग से संपत्ति का समतुलन होगा। समत्वभाव : समानता और समत्वभाव का भी जैनदर्शन में इतना ही महत्त्व है। चेतना के ज्ञान, भाव और संकल्पपक्ष को समत्वसे युक्त या सम्यक् बनाने के हेतु जैनदर्शनने सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र्य का प्रतिपादन किया है, बौद्धदर्शनने शील, समाधि और प्रज्ञा का तथा गीताने ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग का प्रतिपादन किया है। ___ यह समत्व की साधना सदाचाररूप धर्म द्वारा सिद्ध होती है । सामान्य धर्म के अंतर्गत मनुने उन दस धर्मो का परिगणन कराया हैं - धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, घी, विद्या, सत्य और अक्रोध) । जैनधर्म में महाव्रतअणुव्रत और बौद्धधर्म में शील के द्वारा इस आचारसंहिता का ही उद्बोधन कीया गया है । इन आचाररुप धर्ममें व्यक्ति का स्वतःपूर्ण विकास लक्षित है साथ में सामाजिक रूप में शांतिमय सह अस्तित्व भी । अतः रागादि कषायों पर विजय पाने के बाद ही व्यक्ति की चेतना अपने-पराये के भेद से उपर ऊठती है और वह स्वअर्थी से सर्वार्थी बनता है । वैयक्तिक आचार की विशुद्धि सारे संसार की आधारशीलारूप है। क्योंकि व्यक्ति ही समाज का केन्द्र है। और शांतियम समाज की स्थापना के लिये व्यक्ति का नीतिधर्म से प्रेरित अहिंसापूर्ण आचार ही महत्त्व का परिबळ है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130