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बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम देखते हैं । लेकिन यह कर्मविपाक की दुर्विज्ञेयता के कारण है । हिंसक दुराचारी मनुष्य पूर्वकृत् सत्कर्मो के उदय से सुख-सम्पत्ति प्राप्त करता है और सदाचारी मनुष्य पूर्वकृत दुष्कर्मों के विपाक के कारण दुःख सहन करता है । यह विसंगति नहीं, कर्म विपाक ही है। वेद और भगवद्गीता की समान विचारधारा : . अति प्राचीन काल में हमारे वेदों में उद्घोषित किया गया था कि
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजिविषेत् शतं समाः ॥ सो वर्ष तक जीये - लेकिन कर्म करते करते आयु निर्गमन करें । यहाँ निरामय जिंदगी के साथ कर्म का भी माहात्म्य दर्शाया गया है। कर्म हम सब कर सकते हैं, जब कि हमारी तंदुरस्ती अच्छी हो ।
___ मनुष्य को कर्म तो करना ही पड़ता है। कर्म के बिना रह नहीं सकता। . लेकिन श्रीमद् भगवद् गीताने जो निष्काम कर्म की बात कही है वह भीतरी शांति के लिये विचारणीय है । वैदिक विचारधारा का जीवन के प्रति त्यागपूर्वक भोग का दृष्टिकोण है। - 'तेन त्यक्तेन भुंजिथाः' । - हम समृद्धि का उपयोग करें लेकिन निर्लिप्त होकर, निस्संग होकर, निष्काम भाव से। श्रीमद् गीता में यह निष्काम कर्मयोग को बहुत महत्त्व दिया गया है। कर्म फल का त्याग करते हुए कर्म करने से कर्म बंधन नहीं होगा।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन... २/४७ योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय ।। सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥२/४८ विहाय कामान् यः सर्वान् पुमांस्चरति निःस्पृह ।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥
कर्म का व्यक्ति से फल का सम्पत्ति से संबंध है । कर्म का वर्तमान से, फल का भविष्य से संबंध है। निष्काम-कर्म दुःखरहित है, सकाम-कर्म दुःखसहित है। मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र और फल भोगने में परतंत्र है। अशांत जीवन की उलझन में फंसे हुए आज के मानव के लिये निष्काम कर्म की विचारधारा वेद और गीता की ओर से मिला हुआ अमर संदेश है ।
बौद्ध धर्म में इसी संदर्भ में निरास्रव कुशल कर्म का माहात्म्य बताया है।