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बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम
इस मत का साहित्य बहुत ही अल्प मिलता है। 'सर्वसिद्धान्तसंग्रह' आदि अन्य ग्रंथों में 'वाह्यार्थ की अनुमेयता' के सम्बन्ध में इनके मत का उल्लेख है। उसके आधार पर निम्नलिखित सिद्धान्तों का उल्लेख किया जा सकता है। तत्त्वविचार :
सौत्रान्तिकों का कहना है कि निर्वाण असंस्कृत धर्म नहीं हो सकता, क्योंकि यह मग्ग के द्वारा उत्पन्न होता है और यह असत् है, अर्थात् यह क्लेशों का अभाव स्वरूप तथा कषायों का भाषास्वरूप है । दीपक के निर्वाण के समान ही यह भी 'निर्वाण' है । इस अवस्था में धर्मों का धन्यवाद रहता है । इस पद पर पहुंच कर साधक उस आश्रय की प्राप्ति करता है जिसमें न कोई क्लेश हो और न कोई नवीन धर्म की प्राप्ति ही हो । यथा - अग्नि का निर्वाण है, तथा चेतोविमुक्ति है। अग्नि का निर्वाण अग्नि का अत्ययमात्र है । यह द्रव्य नहीं है । लेकिन संदर्भ से मालुम होता है कि अग्नि का निर्वाण अग्नि का अभाव नहीं है। यह निरुपधिशेष निर्वाण ही निर्दिष्ट है।
इनका कहना है कि उत्पन्न होने के पूर्व तथा विनाश होने के पश्चात् 'शब्द' . की स्थिति नहीं पाता इसलिए यह अनित्य है। ... स्वभावतः सत्ता को रखने वाले दो वस्तुओं में 'कार्य-कारणभाव' ये लोग नहीं मानते ।
'वर्तमान' काल के अतिरिक्त 'भूत' और 'भविष्यत् काल को ये लोग नहीं मानते ।
___ इनका कहना है कि दीपक के समान 'ज्ञान' अपने को आप ही प्रकाशित करता है । यह अपने प्रामाण्य के लिए किसी अन्य की अपेक्षा नहीं रखता । ये 'स्वतःप्रामाण्यवादी' हैं।
____ इनके मत में 'परमाणु' निरवयव होते है । अतएव इनके एकत्र संघटित होने पर भी ये परस्पर संयुक्त नहीं होते और न इनका परिणाम ही बढ़ता है, प्रत्युत इनमें 'अणुत्व' ही रहता है।
- सौत्रान्तिको का कहना है कि जो कुछ है, वह हेतु-प्रत्ययजनित है; अर्थात् वह संस्कृत, प्रतीत्यसमुत्पन्न, हेतु-प्रभव है । संस्कृत संस्कार भी है। यह अन्य संस्कृतों का उत्पाद करता है ।- हेतु फल - परंपरा के बाहर कुछ भी नहीं है । यह परंपरा प्रवृत्ति, संसार है । निर्वाण केवल क्लेश - जन्म का अभाव है।
वैभाषिकों की तरह ये 'प्रतिसंख्यानिरोध' तथा 'अप्रतिसंख्यानिरोध' में विशेष अन्तर.नहीं मानते । इनका कहना है कि 'प्रतिसंख्यानिरोध' में प्रज्ञा के उदय