Book Title: Bauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Author(s): Niranjana Vora
Publisher: Niranjana Vora
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बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम
विशुद्धिमग्गः ग्रंथपरिचय :
विशुद्धिमग्ग के कर्ता, जैसे हम जानते हैं - आचार्य बुद्धघोष है । और उसका रचना समय भी बुद्धघोष के समय के अनुरूप - ई.स. की चौथी-पाँचवी सदी के आसपास है। रचनापद्धति और विषय वस्तु :
विशुद्धिमग्ग में मुख्य तीन भाग है और तेईस परिच्छेद है । पहला भाग शील स्कन्ध है। इसमें दो परिच्छेद है। इसमें शील, गुण, प्रकार, प्राप्ति के उपाय
और शील के महत्त्व का वर्णन किया है । तेरह धुताङ्गोका यहाँ विशद निरूपण है । द्वितीय भाग समाधि स्कन्ध कहलाता है। इसमे इसे ३ से १३.तफके परिच्छेद में कर्मस्थानों की ग्रहणविधि, पृथ्वीकसिण, शेषकसिण, अशुभ कर्मस्थान, छह अनुस्मृति, अनुस्मृति कर्मस्थान, ब्रह्मविहार, आरूप्य, समाधि, ऋद्धिविधि तथा अभिज्ञाओ का वर्णन है। तीसरा भाग प्रज्ञासकंध है । इसमें १४ से २३ परिच्छेद तक क्रमशः स्कंध, आयतन, धातु, इन्द्रिय-सत्य, प्रतीत्यसमुत्पाद, दृष्टिविशुद्धि, कांक्षावितरणविशुद्धि, मार्गामार्गज्ञानदर्शनविशुद्धि, प्रतिपदा ज्ञानदर्शनविशुद्धि, ज्ञानदर्शन विशुद्धि तता प्रज्ञाभावना का अति सूक्ष्म रूप से निदर्शन किया है।
संक्षेप में हम कह सकते है कि शील, समाधि और प्रज्ञा विशुद्धिमग्ग का वर्ण्य विषय है। चित्त के राग-द्वेषादि समग्र कषायों का निरसन और शांतिपद निर्वाण की प्राप्ति का उपाय - बुद्धिशासन में इन तीन शिक्षायें - शील - समाधि और प्रज्ञा द्वारा निर्देशित किया गया है।
'विशुद्धिमग्ग' की रचना के संदर्भ में यह कथा प्रचलित है । बुद्धघोष की योग्यता की परीक्षा करने के लिये सिंहल के बौद्ध भिक्षुओने उनको 'अन्तो जटाबहि जटा..' गाथा के बारेमें प्रश्न पूछा अतः बुद्धघोषने जो प्रत्युत्तर दिया, इसके फलस्वरूप विशुद्धिमग्ग की रचना हुई -
अन्यथा यह भी विदित है कि विशुद्धिमग्ग संयुत्तनिकाय में आयी दो गाथाओं के आधार पर रचित, बौद्ध योगशास्त्र का स्वतन्त्र मौलिक प्रकरण-ग्रन्थ है। इन दोनों में पहली गाथा प्रश्न के रूप में तथा दूसरी गाथा का ही आचार्य ने विसुद्धिमग्ग के रूप में विस्तृत व्याख्यान किया है।
पहली गाथा है

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