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गुजराती साहित्य में बौद्धदर्शन का प्रभाव
शलन होता है- ' इस सत्य का प्रतिपादन करता हुआ । • बौद्धमत अनुसार पारमिता आत्मशक्ति की परम चेतना है । यशवंत त्रिवेदी का काव्य - 'पारमिता' में कल्पन, पुराकल्पन और प्रतीकों की संकुलता है । तब भी परम अर्थ प्राप्त करने के लिये तत्पर कवि हृदय का भीतरी भाव भी उस में मुखरित हो उठा है, जिस में बौद्धदर्शन का स्पष्ट प्रभाव है । बोधिवृक्ष के नीचे स्थित भगवान बुद्ध के तत्त्वदर्शन का शून्यवाद और क्षणिकवाद का अतः उसके संदर्भ में प्रति जन्म की वास्तविकता का मर्म "चीनी रेशमी पाणीना परपोटामांथी नीकळी" - अर्थात् सब तरह की सांप्रदायिकता में से मुक्त होने के बाद ही हम पा सकते हैं । इनकी कई पंक्तियाँ इस संदर्भ में ध्यानार्ह हैं -
• 'मारे कोई दुश्मनो नथी-' (अवैर) ० 'जे कोई पण मानवीने तिरस्कारे, __ ते आजथी कविता न लखे....' (मैत्री और करुणा)
'पण राघव अटलुं जोजो के . अश्वमेघ यज्ञ काले धडधडाटची
तमारा अश्वोनी खरीओ हवे वागे नहिं आ रंक धरतीने के नक्षत्रोने-'
- (यज्ञ में हिंसा का प्रतिबंध) उनकी कविता का स्थायी भाव करुणामूलक शाश्वती वेदना है। शास्त्र के शासन से कितना प्रभावित है यह कवि-इसका परिचय इन पंक्तियों मिलती हैं - ... 'बोधि गयाना वृक्षनी घेर घटा लई
लक्ष लक्ष योजन लगी
फाट फाट विस्तरी जइश त्यारे-' ... बोधिवृक्ष की डाली ले कर पुनः लक्ष लक्ष योजन तक बौद्ध धर्म का प्रचार करने की महद् आकांक्षा यहां व्यक्त की है।
. रुंद्रदत्त के दर्शक की नवलकथा दीपनिर्माण में मृत्यु समय का यह संवाद बडा मार्मिक है - त्र्यंबक-रुद्रदत्तका शिष्य उन्हें प्रत्युत्तर देता है. ... मारा गुरु पर... हाथ उपाडनारनो संहार करीने... हुं शस्त्र वेगळु मूकी
दइश...'
'जा घेला, रुद्रदत्तनुं तर्पण वेर लईने थाय ?'