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बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम
थेटा । व्यक्ति - चेतना के स्तर इन्हीं के आधार पर जाने जा सकते हैं । अल्फा तनाव का विसर्जन करनेवाली मानसिक क्रियाओं से जुड़ी हुई तरंग है। सारी बीटा बाह्य चेतना से जुड़ी हुई तरंग हैं ! सारी प्रवृत्तिया इन विद्युतीय तरंगों के आधार पर होती है।
विचारों को भी एक भौतिक पदार्थ माना गया है। हमारे विचारों से कतिपय परमाणुओं प्रभावित होते हैं, फिर वे अवकाश में फैलाते हैं । वातावरण में इस तरह परमाणुं द्वारा विचार का प्रभाव उत्पन्न होता है । लेश्या का सिद्धान्त भी इसी बात का समर्थन करता है।
दूसरी बात यह है कि हमारी चेतना का विकास प्राणशक्ति या प्राणऊर्जा से हो सकता है। लेकिम हमारी सारी प्राणशक्ति का व्यय हररोज के संघर्ष और समस्याओं को सुलझाने में ही हो रहा है । प्राणशक्ति को बचाना और चेतना के विकास में उसका उपयोग करना बहुत जरूरी है । ध्यान के द्वारा इस अपव्यय को रोका जा सकता है, भावनात्मक संतुलन साधा जा सकता है। ध्यान के द्वारा कषाय, वासनाएं, उत्तेजनाएं शांत हो जाती है, यह अनुभवसिद्ध हकीकत है । ध्यान एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है, इससे आन्तरिक रसायनों में परिवर्तन करके शरीर और मन की स्वस्थता - तंदुरस्ती प्राप्त हो सकती है।
__ महर्षि श्री अरविंद बताते हैं कि बीमारी एक Process है, Event नहीं है । आजका मैडिकल सायन्स 'सायको सोमेटिक इलनेस' की बात करता है - जिसमें शरीर और मन का गाढ़ संबंध होता है । Somatic अर्थात् शरीर विषयक
और Psycho अर्थात् मन विषयक । हमारी बहुत सी बीमारीया PsychoSomatic है। केवल बाह्य दवाओं से उसका उपचार नहीं हो सकेगा । मनका भी नियंत्रण करना होगा।
मैडिकल सायंसने यह भी स्वीकार किया है कि जब भावनात्मक दृष्टि से व्यक्ति उत्तेजित होता है - या डिसऑर्डर ऑफ इमोशन - होता है तब भावनात्मक असंतुलन से प्राण ऊर्जा, नाडीतंत्र और ग्रंथितंत्र भी प्रभावित होते हैं और शरीर की सारी अव्यवस्थायें एक साथ आगे बढ़ती हैं । हम प्राणशक्ति की भी उपेक्षा नहीं कर सकते, सबकुछ उस पर ही निर्भर है। योगसाधना का उपदेश यही प्राणशक्ति और श्वास के नियंत्रण के लिये ही है ।
शायद इस दृष्टि से हमारा धार्मिक आचार-विचार और योगशास्त्र का व्याप विज्ञान के व्याप से विस्तृत है। योगी श्री स्वामी राम का मत है कि आधुनिक विज्ञानने असाधारण प्रगति की है, फिर भी आज का मनुष्य अनेक नए नए रोगों