________________
जैन आचारसंहिता और पर्यावरणशुद्धि
पर्यावरण का प्रदूषण आज की वैश्विक समस्या हैं । सांप्रत समय की उपभोक्तावादी संस्कृति में प्रकृति के तत्त्वों का स्वच्छंद रूप से उपयोग हो रहा है। मनुष्य अपनी श्रुल्लक वृत्तियों - वासनाओं की तृप्ति के लिए प्राकृतिक तत्त्वों का मनचाहे ढंग से, उपभोग और विनाश कर रहा है। इससे पृथ्वी, जल, वायु, वनस्पति, तेज (अग्नितत्त्व) में एक प्रकार की रिक्तता और विकृति भी उत्पन्न होती जा रही है। विशाल परिप्रेक्ष्य में पर्यावरण समग्र सजीव सृष्टि और मानवजाति के अस्तित्व का प्रश्न है। आज हमें चकाचौंध करनेवाले आर्थिक और भौतिक विकास के मार्गमें सबसे बड़ा प्रश्नार्थचिह्न है पर्यावरण का । विज्ञाननकी शक्ति के सहारे उपभोग की अमर्यादित सामग्री उत्पन्न होती जा रही है। मनुष्य सुख ही सुख के स्वप्नों में • विहरता है । लेकिन इस साधनसामग्री के अमर्यादित और असंयत उपभोगने हमें पर्यावरण के बहुत बड़े प्रश्नार्थ चिह्न के सामने खड़े कर दिये हैं।
- वायु और जलप्रदूषण, ओझोन वायके स्तरका नष्ट होना, पक्षी और प्राणियों की कई जातियों का अंत होना, इन सबके बारेमें गंभीरता से सोच-विचार कर नक्कर रूप से कार्य करना पड़ेगा । पर्यावरण का प्रश्न जीवनशैलीका प्रश्न बन गया है। आर्थिक और भौतिक विकास के क्षेत्रमें मनुष्यने प्रकृतिसे न केवल सहाय ली है, आवश्यक मात्रामें प्रकृति के तत्त्वों का उपयोग करने के बजाय उसका शोषण किया है, जैसे महात्मा गांधीजीने बताया है कि मनुष्यने भविष्य के लिये सुरक्षित रखनी चाहिये-जैसी कुदरती संपत्तिका सुख-सुविधा के लिये वर्तमान में ही खर्च कर दिया
प्रकृति नानाविध स्वरूप द्वारा अपने आप को अभिव्यक्त करती है। गांधीजी के दृष्टि से प्रकृति जीवंत है और जल, वायु तथा आहार की आवश्यकताओं को