Book Title: Bauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Author(s): Niranjana Vora
Publisher: Niranjana Vora

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Page 50
________________ गुजराती साहित्य में बौद्धदर्शन का प्रभाव ४३ और हिंसा के दलबादल घिरे हुओ दिखाई पड़ते हैं तब कवि भगवान बुद्ध को पुनर्जन्म के लिये और अहिंसा के मंत्रका पुनः प्रबोधन करने के लिये प्रार्थना करके अंत में कहते हैं - . रहो सदा शान्ति, न को दी युद्ध, सिद्धार्थ हे, हे भगवान बुद्ध ! उन्हीं के अेक काव्य में भगवान बुद्ध और ओक किसान के बीच में जो संवाद हुआ था- उसी कथा का आलेखन किया गया है। किसान को अपने कार्य का परिचय भगवान बुद्ध-किसान की ही भाषामें - इस तरह देते हैं- . · श्रद्धा तणां बी, वरसाद अना परे सदाचार तणो थतां तो प्रज्ञाफळो मानसक्षेत्रे फूटे. कुकर्मलज्जा हळदंड मारो जे बांधियो छे मनोदोरथी में. स्मृति चाबुक मारो ने स्मृति छे हळनुं फळ, विश्रान्नि शान्ति छे मारी, सत्य ओ मुख नींदण. उत्साहरूपी. बळदो वडे हुं मारुं चलावू. हळ नित्य प्रीते, निर्वाण केरी दिशा खेडतो हुँ, • खेडूत हुं, खेडूत सर्व रीते. - . बुद्ध कहते हैं - "मेरे मानसक्षेत्रमें श्रद्धा के बीज मैं बोता हूं, उस पर 'सदाचार की बारिश होने से प्रज्ञारूपी फल उत्पन्न होते हैं । कुकर्मलज्जा मेरा हळदंड है, जिसे मैंने मनोदोरसे बांधा है । स्मृति ही चाबूक है और स्मृति ही हलका फला है। विश्रान्ति शान्ति ही मेरे लिये विश्रान्ति है और सत्य नींदण है, अर्थात् सत्यरूपी अन्न मैं पाता हूं । उत्साहरूपी बैलों से मैं हळ जोतता हूं । निर्वाण की दिशा में खेडता हूं । मैं सर्व प्रकार से खेडूत - खेडूत ही हूं।" कवि नाथालाल दवे ने 'यशोधरा' काव्य में माता-पिता, पत्नी-पुत्र और राज्य की सर्व समृद्धि को छेडकर विश्व के कल्याणार्थ महाभिनिष्क्रमण करनेवाले भगवान बुद्ध के हृदयतल में बहती हुई मानव प्रेम की अक्षत धारा को इस तरह तादृश की है -

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