Book Title: Bauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Author(s): Niranjana Vora
Publisher: Niranjana Vora

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Page 43
________________ बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम अन्त में विज्ञान का भी निराकरण शून्यवाद - मत में किया गया । इस प्रकार बाह्य और अन्त:सत्ता दोनों का शून्य में विलयन कर दिया गया । 'यह शून्य एक प्रकार से अनिर्वचनीय है । यह सत् और असत् दोनों से विलक्षण है तथा सत् और असत् दोनों स्वरूप शून्य के गर्भ में निर्वाण को प्राप्त किये हुए हैं। यह अभावात्मक नहीं है एवं अलक्षण है । ३६ इस तरह बौद्ध संप्रदायोंने जगत् के स्वरूप के बारे में गहन चिंतन किया है, लेकिन गौतम बुद्धने अपने आप कार्य-कारण के संदर्भ में प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धान्त को ही तत्त्व की दृष्टि से प्रतिपादित किया है और हीनयान संप्रदाय में इसे ही ज्यादा महत्त्व दिया गया है । यहाँ कार्य-कारण की चर्चा अति सूक्ष्म तरीके से हुई है, अत: प्रतीत्य समुत्पाद में तथता, वितथता, अनन्यता और इन्द्रिय- प्रत्यता का वर्णन भी हैं। किसी एक वस्तु की उत्पत्ति के लिये, जितने प्रत्यय आवश्यक है, उससे न ज्यादा और न कम प्रत्यय होने से ही वस्तु की उत्पत्ति होती है। उसे अवितथा कहते हैं । किसी एक वस्तु की प्रत्यय सामग्री से दूसरी वस्तु की संभव नहीं है। जैसे गेहूँ की प्रत्यय सामग्री से चावल प्राप्त नहीं हो सकते। यह प्रतीत्य समुत्पाद की अनन्यता है। और कारणसामग्री और उनके कार्य के बीच इसके होने से यह होता है, ऐसा जो संबंध है, वह इसकी इदं प्रत्ययता है। इससे उपरांत प्रतीत्य समुत्पाद तीनों काल, पांच संधि और अष्टांगिक मार्ग के आठ अंग के साथ भी संबंधित हैं 1 यह सिद्धान्त ही बौद्ध तत्त्वदर्शन के साररहस्यरूप 1 संदर्भ ग्रंथ १. भारतीय दर्शन - ले. न. कि. देवराज २. बौद्ध धर्मदर्शन - आचार्य नरेन्द्रदेव ३. बौद्धदर्शन - एम. के. भट्ट ४. भारतीय दर्शन - उमेश मिश्र

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