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बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम
'अप्रतिसंख्यानिरोध' कहते हैं । अर्थात् 'अप्रतिसंख्यानिरोध' वह अवस्थां है 'जब बिना 'प्रज्ञा' के, 'स्वभाव' से ही, सास्रवधर्मों का का निरोध हो जाय । सास्रवधर्म हेतु-प्रत्यय से उत्पन्न होते है । यदि उन हेतुओं का नाश हो जाय तो ये सभी धर्म स्वयं, अर्तात् 'प्रज्ञा' के बिना ही, निरुद्ध हो जायेंगे। इस प्रकार जो धर्म निरुद्ध होंगे वे पुनः उत्पन्न नहीं होंगे ।
'प्रतिसंख्यानिरोध' में निरोध का ज्ञानमात्र रहता है, वास्तविक निरोधं तो 'अप्रतिसंख्यानिरोध' में ही होता है ।
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(३) 'आकाश' आवरण के अभाव को 'आकाश' कहते हैं । कहा गया है।
'आकाशम् अनावृत्ति ।' अर्थात् 'आकाश' न किसी का विरोध करता है और न स्वयं किसी से अवरुद्ध होता है । यह नित्य और अपरिवर्तनशील है । यह भाव - रूप है ।
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संस्कृत धर्म के भेद - संस्कृत धर्म के चार भेद हैं- 'रूप', 'चित्त', 'चैतसिक' तथा 'चित्तविप्रयुक्त' । पुनः 'रूप' के ग्यारह, 'चित्त' के एक, 'चैतसिक' के छियालीस तथा 'चित्तविप्रयुक्त' के चौदह प्रभेद है ।
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(१) रूप - जगत् के भूत और भौतिक पदार्थों के लिए बौद्ध दर्शन में 'रूप' शब्द का प्रयोग किया जाता है । अर्थात् 'रूप' वह पदार्थ है जो अवरोध उत्पन्न करे । बाह्येन्द्रिय पाँच (चक्षु, श्रोत, घ्राण, रसना तथा काय), इनके पाँच विषय (रूप, शब्द, गन्ध, रस तथा स्प्रष्टव्य) तथा 'अविज्ञप्ति', ये ग्यारह 'रूप' के प्रभेद है । इनके भी अनेक अवान्तर भेद हैं जो अभिधर्मकोश में दिये गये
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(२) चित्त बौद्ध दर्शन में 'चित्त', 'मन', 'विज्ञान' आदि शब्द एक ही अर्थ में 'प्रयोग' किये जाते हैं ।
शास्त्र में चित्त और चैत के अनेक नाम हैं। चित्त (Mind), मन (Reason), विज्ञान (Counseness) – ये नाम एक अर्थ के वाचक हैं। न्याय-वैशेषिक में केवल मन शब्द का प्रयोग है। जो संचय करता है । (चिनोति ) वह चित्त है, यह कुशल - अकुशल आदि का संचय करता है । यही मन है, क्योंकि मनन करता है (मनुते) । यही विज्ञान है, क्योंकी वह अपने आलंबन को जानता है । ऐसा कहा गया है कि चित्त नाम इस लिये है कि यह शुभअशुभ धातुओं से चित्रित है । यह मन है क्योंकि यह अपर - चित्त का आश्रयभूत है, यह विज्ञान है, क्योंकि वह इन्द्रिय और आलंबन पर