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बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम कोई नहीं है । प्रतीत्य समुत्पाद के नियम अनुसार ये उत्पन होते हैं, नष्ट होते है
और पुनः अपनी भवशक्ति से जन्म लेते है। इन्हीं पाँच उपादानों का एकत्र संघटन शरीर-रूप में प्रगट होता है। प्रतीत्य समुत्पाद का सिद्धांत :
पंच स्कंधों के साथ प्रतीत्य समुत्पाद का सिद्धांत अविनाभाव संबंधित है।
गौतम बुद्धने प्रतीत्य समुत्पाद के सिद्धान्त द्वारा यह समझाया है कि दुःख ईश्वरनिर्मित या भाग्यप्रेरित नहीं है । प्रतीत्य समुत्पाद अविचल कार्यकारणभाव के आधार पर दुःखनिरोध की शक्यता का निर्देश करता है।
___ कारण के सद्भाव में उत्पत्ति और कारण के असद्भाव में उत्पत्ति का भी अभाव होता है, इस कार्यकारण शृंखला के बार अंग हैं - निदान है, अतः उसे द्वादश निदान और भवचक्र भी कहते है।
__यह बारह निदान इस तरह हैं : अविद्या, संस्कार, विज्ञान, नामरूप, षडायतन, स्पर्श, वेदना, तृष्णा, उपादान, भव, जाति, जरा-मरण-शोक, दुःख और दौर्मनस्य । इसमें अविद्या के संस्कार, संस्कार से विज्ञान, से नामरूप.... इस प्रकार से समस्त दुःखस्कन्ध का समुदय होता है, यही प्रतीत्य समुत्पाद है। 'अस्मि सति इदम् होति' - अर्थात् इसके होने पर यह होता है । प्रतीत्य समुत्पाद का अर्थ प्रायः सापेक्ष कारणतावाद है।
___ अतः प्रतीत्य समुत्पाद का अर्थ है प्रत्यय (हेतु) प्राप्त कर प्रादुर्भाव - कारण होने से कार्य का उद्भव - उपसर्गपूर्वक इसका अर्थ प्रादुर्भाव है। अतः प्रतीत्य समुत्पाद का अर्थ है प्रत्यय (हेतु) प्राप्त कर प्रादुर्भाव, कारण होने से कार्य का उद्भव । 'अस्मि सति इदम् होति' अर्थात् इसके होने पर यह होता है - ऐसा सूत्रात्मक अर्थ दिया जाता है।
__ प्रतीत्य समुत्पाद अनुलोम - प्रतिलोम दो प्रकार का है। यह हेतु प्रत्ययता का वाद है । अतः जिस तरह एक प्रत्यय से दूसरे प्रत्यय का प्रादुर्भाव होता है, इस तरह एक प्रत्यय के निरोध से अन्य प्रत्ययों का भी क्रमशः निरोध होता है। अविद्या के निरोध से संस्कार का निरोध होता है .... और क्रमशः जाति, जन्म, का निरोध होने से जरा, मरण, शोक... आदि का निरोध होता है। इस तरह समस्त दुःखस्कन्ध का नाश होता है । प्रतीत्य समुत्पाद में इस तरह अनुलोम और प्रतिलोम के माध्यम से दुःख समुदय और दुःख निरोध का प्रतिपादन हुआ है । इस लिये इस सिद्धान्त का महत्त्व समझाते हुए गौतम बुद्धने कहा है कि जो प्रतीत्य समुत्पाद