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बौद्ध तत्त्वमीमांसा : हीनयान संप्रदाय के अनुलक्ष्य में
को जानता है, वह धर्म को जानता है और जो धर्म को जानता है वह प्रतीत्य समुत्पाद को जानता है ।
यो पटिच्चसमुप्पादं पस्सति सो धम्मं पस्सति ।
यो धम्म पस्सति सो परिच्चसमुप्पादं परस्सति ॥ इस तरह यह कार्यकारण की शंखला ही दुःख की उत्पत्ति के लिये कारणरूप है। दुःख न तो ईश्वरनिर्मित है, न तो भाग्यप्रेरित । प्रतीत्य समुत्पाद द्वारा आंतरिक और बाह्य जीवन के समस्त कार्यकलापों के समुदय और निरोध का क्रम, कारण और कार्य का अन्योन्य आश्रितभाव के आधार से निदर्शन किया गया है। - तत्त्वविचार की दृष्टि से कार्य-कारण पर आधारित यह प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धांत बौद्धदर्शन की हीनयान शाखा और उसकी प्रशाखाओं में भी विशेष महत्त्व रखता है। हीनयान की दो प्रशाखाएं हैं : वैभाषिक और सौत्रान्तिक :
वैभाषिक संप्रदाय का केन्द्र काश्मीर था । इस संप्रदाय के सिद्धान्तों को ग्रंथबद्ध करने का प्रथम प्रयत्न बुद्ध के महापरिनिर्वाण के तीन सौ वर्ष पश्चात् कात्यायनी-पुत्रने किया। उनके 'ज्ञानप्रस्थानशास्त्र' और वसुबन्धु के 'अभिधर्मकोश' में तत्त्वों का बहुत सूक्ष्म और विस्तृत रूप से विचार किया है। .: वैभाषिक संप्रदाय में तत्त्वों का विचार दो दृष्टियों से किया जाता है : विषयगत' और 'विषयिगत' :
. विषयिगत दृष्टि से समस्त जगत को तीन भागों में विभक्त किया गया है : स्कन्ध, आयतन और धातु । स्कन्ध राशि को कहते हैं । आयतन का अर्थ आय..द्वार, उत्पत्तिद्वार है । धातु से आशय स्रोत का है।
स्कंध पाँच है - रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान । रूप दो प्रकार का है - एक भूतरूप और दूसरा उपादाय रूप । पृथ्वी, जल, तेज और वायु - • ये चार भूत हैं । इन चार महाभूतों से जो विविध रूप बनते हैं वे उपादाय रूप
हैं। वेदना सुखदुःखानुभूत होती है। संज्ञा निमित्तोदग्रहणात्मक होती है । संसार कर्म है और विज्ञान चेतना या मन है । संज्ञा, संस्कार, वेदना और रूप के संसर्ग से विज्ञान की विभिन्न स्थितियाँ होती हैं । इसीसे इन्हें अनित्य बतलाया गया है ।
आयतन: ... बस्तुओं का ज्ञान स्वतंत्र रूप से नहीं होता, उसके लिये किसी आधार • कि अपेक्षा रहती हैं । इन्द्रियों द्वारा विषयों का ज्ञान होता है । अतएव, इन्द्रियों तथा
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