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बौद्ध तत्त्वदर्शन और प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त
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से ही वस्तु की उत्पत्ति होती है। उसे अवितथा कहते हैं। किसी एक वस्तु की प्रत्यय सामग्री से दूसरी वस्तु की उत्पत्ति संभव नहीं है। जैसे गेहूँ की प्रत्यय सामग्री से चावल प्राप्त नहीं हो सकते। यह प्रतीत्य समुत्पाद की अनन्यता है । और कारणसामग्री और उनके कार्य के बीच - इसके होने से यह होता है, ऐसा जो संबंध है, वह उसकी इदं - प्रत्ययता है। इससे उपरांत प्रतीत्यसमुत्पाद तीनों काल, पाँच संधि और अष्टांगिक मार्ग के आठ अंग के साथ भी संबंधित है ।
बौद्ध संप्रदायों की तत्त्वमीमांसा :
गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद बौद्ध धर्म अनेक संप्रदायों में विभाजित हुआ। प्रायः चार आर्य सत्य और प्रतीत्य समुत्पाद के सिद्धान्त का सबने स्वीकार किया । अन्य संप्रदायों के बजाय हीनयान और महायान संप्रदाय का ज्यादा प्रभाव रहा।
इनके चार भि-भिन्न सम्प्रदाय हो गये और इन सबोंने विश्व के पदार्थों की 'सत्ता' के सम्बन्ध में· अपने विचार प्रकट किये । 'हीनयान' की दो शाखाएँ हुई - 'वैभाषिक' तथा 'सौत्रांतिक' । बुद्ध के महानिर्वाण के पश्चात् तीसरी सदी में 'वैभाषिक' मत की तथा चौथी सदी में 'सौत्रान्तिक' मत की सिद्धि हुई । 'महायान' की भी दो शाखाएँ हुई - 'योगाचार' या 'माध्यमिक' या 'शून्यवाद' । वैभाषिक - मंत में जिस जगत् का इन्द्रियो के द्वारा हमें अनुभव होता है। वह उसकी 'बाह्य-सत्ता' है । इसका हमें प्रत्यक्ष और कभी-कभी अनुमान से भी ज्ञान प्राप्त होता है। इस जगत की सत्ता चित्तनिरपेक्ष है, साथ ही साथ हमारे अन्दर चित्त तथा उसकी सन्तति की भी स्वतन्त्र 'सत्ता' है । अर्थात् जगत् एवं चित्तसन्तति "दोनों की सत्ता पृथक्-पृथक् स्वतन्त्र रूप से वैभाषिक मत में मानी जाती है । यह सत्ता प्रतिक्षण में बदलती रहती है, अर्थात् ये लोग 'क्षणभंगवाद' का स्वीकार करते हैं । वस्तुतः 'क्षणभंगवाद' को तो सभी बौद्ध मानते हैं ।
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सौत्रान्तिकों का कथन है कि 'बाह्य सत्ता' तो है अवश्य, किन्तु इसका • ज्ञान हमें ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा, अर्थात् प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा, नहीं होता । 'चित्त' में स्वभावतः कोई आकार बौद्ध नहीं मानते । यह शुद्ध और निराकार है । किन्तु इस ''चित्त' में आकारों की उत्पत्ति तथा नाश होता ही रहता है। ये 'आकार' चित्त के अपने धर्म तो है नहीं । ये हैं बाह्य जगत् की वस्तुओं के 'आकार' । इस प्रकार चित्त के आकारों के द्वारा 'बाह्य - सत्ता' का ज्ञान हमें अनुमान के द्वारा प्राप्त होता 'है, यह 'सौत्रान्तिकों' का मन्तव्य है । 'वैभाषिको' की तरह 'क्षणभंगवाद' को ये भी मानते हैं ।
सौत्रान्तिक-मत में सत्ता की स्थिति बाह्य से अन्तर्मुखी हो गयी ।