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बौद्ध तत्त्वदर्शन और प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त
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संस्कार : संस्कार का कई अर्थ है, लेकिन यहाँ संस्कार का अर्थ 'कर्म' किया गया है, यह पूर्वजन्म की कर्मावस्था है । अविद्यावश सत्त्व जो भी कुशल- अकुशल कर्म करता है, वही 'संस्कार' कहलाता है । संस्कार तीन प्रकार के है काय संस्कार, मनः संस्कार और वाक् संस्कार । विज्ञान : विज्ञान प्रत्युत्पन्न जीवन की वह अवस्था है, जब प्राणी माता के गर्भ में प्रवेश करता है और चेतना प्राप्त करता है। यह गर्भ अथवा प्रतिसन्धि का क्षण है । इसे उपपत्ति - क्षण भी कहते हैं । विज्ञान विजानन को भी कहते हैं ।
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नामरूप : नामरूप में दो शब्द हैं - नाम और रूप । 'रूप' में चार महाभूत पृथ्वी, जल, तेज और वायु तथा 'नाम' में संज्ञा, वेदना, संस्कार और विज्ञान ये चार स्कन्ध आते हैं। दोनों को मिलाकर ही पंचस्कन्ध नामरूप कहलाते हैं। रूप औदारिक, स्थूल होता है और प्रत्यक्ष है, नाम क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होते हैं । नाम को मानसिक धर्म भी कहते हैं । विज्ञान माता की कुक्षि में प्रतिसन्धि ग्रहण करता है तभी से नामरूप की उत्पत्ति शुरू होती है। षडायतन : छह आयतन अर्थात् पाँच इन्द्रियों और मन षडायतन कहलाते हैं। ये षडायंतन ही ज्ञानोत्पत्ति में सहायक होते हैं । षडायतन उस अवस्था का सूचक है, जब सत्त्व माता के उदर से बाहर जाता है, और उसकी छह इन्द्रियों पूर्णतः या तैयार हो जाती है, परंतु वह अभी तक उन्हें प्रयुक्ति नहीं कर सकता ।
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स्पर्श : इन्द्रिय और विषय के संनिकर्ष को स्पर्श कहते हैं । जैसे चक्षु रूप का संनिकर्ष होना चक्षुसंस्पर्श है । पाँच इन्द्रियों और मन के भेद से स्पर्श भी छह प्रकार का है ।
वेदना : वेदना का अर्थ है अनुभव करना । इन्द्रिय और विषय के संयोग से मन पर जो प्रथम प्रभाव होता है, उसे वेदना कहते हैं । वह तीन प्रकार की है - सुखा वेदना, दुःखा वेदना और न सुखा न दुःखा वेदना । तृष्णा : रूपादि कामगुण के प्रति राग का समुदाचार अथवा अनुभूत सुख को पुनः पुनः प्राप्त करने की तीव्र प्रबल इच्छा या वृत्ति ही तृष्णा है, वही मूलक भी है। तृष्णा तीन प्रकार की होती है : काम, भव और विभव । यह त्रिविध तृष्णा ही सत्त्व को भवचक्र में घुमानेवाली होती है। तृष्णा ही दुःख का मूल कारण है । यह विषय - भेद से छह प्रकार की होती है।