Book Title: Bauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Author(s): Niranjana Vora
Publisher: Niranjana Vora

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Page 31
________________ २४ ९. १०. बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम उपादान : विषयों को दृढतापूर्वक ग्रहण करना उपादान है। यह चार प्रकार का होता है : कामउपादान, दृष्ट्युपादान, शीलव्रत उपादान और आत्मवाद उपादान । भव : होना 'to be' ही भव है । पुनर्जन्म करानेवाले कर्म भव कहलाता है । यह दो प्रकार का है : उपपत्ति भव और कर्म भव । जिस जिस उपादान के कारण सत्त्व जिस जिस लोक में जन्म लेता है, वह उपपत्ति -भव है और जो कर्म विशेष पुनर्जन्म करानेवाले होते हैं उसे कर्मभव कहते हैं । कर्म से फल की उत्पत्ति होती है, अतः कर्म को ही भव कहते हैं । पूर्वजन्म. के संस्कार के अनुरूप, अनागत काल में जो जन्म होनेवाला है, उसे उपपत्ति कहते हैं । ११. जाति : जाति अर्थात् जन्म । उत्पन्न होना जाति है । सत्त्व पूर्वभव के कारण उत्पन्न होता है | जाति पाँच स्कन्धों के स्फूरण की अवस्था है । १२. जरा-मरण : जरा और मरण दो अवस्थाएं हैं. । जीर्ण होना जरा 1 । और मृत्यु होना मरण है । भगवान कहते हैं कि उन उन सत्त्वों का उन उन सत्त्वनिकाय में जरा, जीर्णता, दांतों का तूटना (खान्डिन्यं), बालों का पकना(पालिच्वं), त्वया या काय में झुर्रियाँ पड जाना, आयु की हानि और इन्द्रियों का पक जाना जरा है । और सत्त्वों का अपने निकाय याने शरीर च्यूत होना, च्यवनता, भेद, अंतर्धान, शरीर का गिरना, मरण, काल करना, स्कन्धों का विच्छेद होना यह मृत्यु है । इस प्रकार जाति से जरा-मरण है। और मरण से शोक, परिदेव, दुःख, दौर्मनस्य, परेसानी, उपायास आदि उत्पन्न होते हैं । स्वजनों और संपत्ति के नाश से उत्पन्न अनुताप शोक है । शोक से उत्पन्न विलाप परिदेव है । शारीरिक पीड़ा अथवा पँचविज्ञानकाय के अरुचिकर अनुशय दुःख है । मानसिक वेदना दौर्मनस्य है और तीव्रवेदना उपायास है । 1 I इस तरह यह कार्यकारण की शृंखला ही दुःख की उत्पत्ति के लिये कारणरूप है । दुःख न तो ईश्वरनिर्मित है, न तो भाग्यप्रेरित । प्रतीत्य समुत्पाद द्वारा आंतरिक और बाह्य जीवन के समस्त कार्यकलापों के समुदय और निरोध का क्रम, कारण और कार्य का अन्योन्य आश्रितभाव के आधार से निदर्शन किया गया है । यहाँ कार्य-कारण की चर्चा अति सूक्ष्म तरीके से हुई है, अतः प्रतीत्यसमुत्पाद में तथता, वितथता, अनन्यता और इन्द्रियप्रत्यता का वर्णन भी है। किसी एक वस्तु को उत्पत्ति के लिये, जितने प्रत्यय आवश्यक है, उससे न ज्यादा और न कमं प्रत्यय होने

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