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बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम है, तथापि कर्म-फल का सातिक्रम हो सकता है । विपच्यमान कर्मों का संक्रमण हो सकता है। विपच्यमान कर्म वे हैं जिनको बदला जा सकता है, अर्थात् जिसका सातिक्रमण (संक्रमण) हो सकता है, यद्यपि फल-योग अनिवार्य है। उन्हें अनियतवेदनीय किन्तु नियतविपाककर्म भी कहा जाता है । बौद्धदर्शन का नियतवेदनीय नियतविपाक कर्म जैनदर्शन के निकाचना से तुलनीय है। .
कर्मों की सत्ता, उदय, उदीरणा और उपशमन इन चार अवस्थाओं का विवेचन हिन्दू आचारदर्शन में भी मिलता है । वहाँ कर्मों की संचित, प्रारब्ध और क्रियामाण ऐसी तीन अवस्थाएँ मानी गयी हैं। वर्तमान क्षण के पूर्व तक किये गये समस्त कर्म संचित कर्म कहे जाते है, इन्हें ही अपूर्व और अदृष्ट भी कहा गया है। संचित कर्म के जिस भाग का फलभोग शुरू हो जाता है उसे ही प्रारब्ध कर्म कहते है। इस प्रकार पूर्वबद्ध कर्म के दो भाग होते हैं । जो भाग अपना फल देना आरब्ध कर देता है वह प्रारब्ध (आरब्ध) कर्म कहलाता है, शेष भाग जिसका फलभोग प्रारम्भ नहीं हुआ है अनारब्ध (संचित) कहलाता है। . बौद्ध दृष्टिकोण - बौद्धदर्शन में कायिक, वाचिक और मानसिक आधारों पर निम्न १० प्रकार के पापों या अकुशल कर्मों का वर्णन मिलता है। (अ) कायिक पाप - १. प्राणातिपात (हिंसा); (२) अदत्तादान (चोरी). (३)
कामेसुमिच्छाचार (कामभोग सम्बन्धी दुराचार) (ब) वाचिक पाप - ४. मुसावाद (असत्य भाषण), ५. पिसुनावाचा (पिशुन
वचन), ६. फरूसावाचा (कठोर वचन), ७. सम्फलाप
(व्यर्थ आलाप) (क) मानसिक पाप - ८. अभिज्जा (लोभ), ९. व्यापाद (मानसिक हिंसा या
अहित चिन्तन), १०. मिच्छदट्ठी (मिथ्या दृष्टिकोण) अभिधम्मत्यसंग्रहो में निम्न १४ अकुशल चैतसिक बताये गये है
१. मोह (चित्त का अन्धापन), मूढता, २. अहिरिक (निर्लज्जता), ३. अनोत्तप्पं-अ-भीरूता (पाप कर्म में भय न मानना), ४. उद्धच्चं-उद्धतपन (चंचलता), ५. लोभो (तृष्णा), ६. दिठ्ठी-मिथ्यादृष्टि, ७. मानो-अहंकार, ८. दोसो-द्वेष, ९. इस्साईर्ष्या (दूसरे की सम्पत्ति को न सह सकना), १०. मच्छरियं-मात्सर्य्य (अपनी सम्पत्ति को छिपाने की प्रवृत्ति), ११. कुक्कुच्च-कौकृत्य (कृत-अकृत के बारे में पश्चाताप), १२. थीनं, १३. मिद्धं, १४. विचिकिच्छा-विचिकित्सा (संशय) ।