Book Title: Bauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Author(s): Niranjana Vora
Publisher: Niranjana Vora

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Page 22
________________ बौद्धधर्म में प्रतिपादित कर्मसिद्धान्त या आग्रह रखता है वे सभी कायिक एवं मानसिक प्रवृत्तियाँ भगवद्गीता के अनुसार कर्मे ही है। बौद्ध विचारकों ने भी कर्म शब्द का प्रयोग क्रिया के अर्थ में किया है। वहाँ भी शारीरिक, वाचिक और मानसिक क्रियाओं को कर्म कहा गया है, जो अपनी नैतिक शुभाशुभ प्रकृति के अनुसार कुशल कर्म अथवा अकुशल कर्म कहे जाते हैं। बौद्धदर्शन में यद्यपि शारीरिक, वाचिक और मानसिक इन तीनों प्रकार की क्रियाओं के अर्थ में कर्म शब्द का प्रयोग हुआ है, फिर भी वहाँ केवल चेतना की प्रमुखता दी गयी है और चेतना को ही कर्म कहा गया है । बुद्ध ने कहा है, 'चेतना ही भिक्षुओं कर्म है ऐसा मैं कहता हूँ, मनुष्य चेतना के द्वारा ही कर्म को करता है - काया से, वाणी से मन से।' यहाँ पर चेतना को कर्म कहने का आशय केवल यही है कि चेतना के होने पर ही ये समस्त क्रियाए सम्भव हैं । बौद्धदर्शन में चेतना को ही कर्म कहा गया है, लेकिन इसका अर्थ नहीं है, कि दूसरे कर्मों पर निरसन किया गया है। बौद्ध धर्म अनुसार कर्म का प्रकार : यदि समुत्थान (आरम्भ) की दृष्टि से विचार करें तो मनकर्म ही प्रधान है, क्योंकि सभी कर्मो का आरम्भ मन से है । साथ ही इसी आधार पर कर्मों का 'एक द्विविध वर्गीकरण किया गया है - १. चेतना कर्म और २. चेतयित्वा कर्म । चेतना मानस-कर्म है और चेतना से उत्पन्न होने के कारण शेष दोनों वाचिक और कायिक कर्म चेतयित्वा कर्म कहे गये हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि यद्यपि कर्म शब्द क्रिया के अर्थ में प्रयुक्त होता है, लेकिन कर्मसिद्धान्त में कर्म शब्द का अर्थ क्रिया से अधिक विस्तृत है । साधारण रूप से कर्म शब्द से क्रिया, क्रिया का उद्देश्य और उसका फलविपाक तीनों ही अर्थ लिये जाते हैं । ... बौद्ध कर्म-विचारणा में जनक, उपस्थम्भक, उपपीलक और उपघातक ऐसे चार कर्म माने गये हैं । जनक कर्म दूसरा जन्म ग्रहण करवाते हैं, इन रूप में वे सत्ता की अवस्था से तुलनीय हैं । उपस्थम्भक कर्म दूसरे कर्म का फल देने में सहायक होते हैं, ये उत्कर्षण की प्रक्रिया के सहायक माने जा सकते हैं । उपपीलक कर्म दूसरे कर्मों की शक्ति को क्षीण करते हैं, ये अपवर्तन की अवस्था से तुलनीय हैं। उपघातक कर्म दूसरे कर्म का विपाक रोककर अपना फल देते हैं, ये कर्म उपशमन की प्रक्रिया के निकट हैं । बौद्धदर्शन में कर्म-फल के संक्रमण की धारणा स्वीकार की गयी है । बौद्धदर्शन यह मानता है कि यद्यपि कर्म (फल) का विप्रणाश नहीं

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