Book Title: Bauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Author(s): Niranjana Vora
Publisher: Niranjana Vora

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Page 20
________________ बौद्धधर्म में प्रतिपादित कर्मसिद्धान्त ईश्वरवाद, नियतिवाद और आत्मवाद का खंडन : • गौतम बुद्ध की दृष्टि से ब्राह्मणों द्वारा स्थापित ईश्वरवाद अंधवेणी परंपरा जैसा है। जैसे एक ही पंक्ति में अन्योन्य के आश्रय से स्थित अंधजनों अपने आप कुछ देख नहीं सकते । इस तरफ ईश्वरवादी लोग भी अदृष्ट ईश्वर का साक्षात्कार कीया बिना ही उसका स्वीकार करते हैं, और उसके स्वरूपवर्णन करने में भी असमर्थ रहते हैं। ऐसे ईश्वर का अस्तित्व प्रमाणित नहीं हो सकता है। सर्व परिस्थिति और संजोगों को ईश्वर या तो भाग्यनिर्मित मानने से मनुष्य अकर्मण्य हो जायेगा और सद्कर्मों के प्रति उसकी श्रद्धा क्षीण हो जायेगी और असद् या पापकृत्यो द्वारा भी सुख प्राप्ति करने के लिये प्रवृत्त हो जायेगा । हिंसा, चोरी, असत्य, भाषण आदि अनेक दुष्कृत्यं ईश्वरप्रेरित ही होने की संभावना दृढ बनेगी। लेकिन ईश्वर के बारे में हमारी जो अवधारणा है, इसके साथ यह सुसंगत नहीं है । गौतम बुद्धने कहा कि सुखदुःख आदि सर्वथा ईश्वरकृत या भाग्याधीन नहीं है। सभी प्राणी या सत्त्व विवश, निर्बल, सामर्थ्यरहित अथवा अवश बनकर नहीं, लेकिन अपने कर्मानुसार, जन्मजन्मांतर की परंपरा की शृंखला से बद्ध होते हैं और सुखदुःख का अनुभव करते हैं। उसी तरह उन्होंने आत्मा के संदर्भ में शाश्वतवाद और उच्छेदवाद-दोनों मान्यताओं का अस्वीकार किया था । बौद्ध धर्म में आत्मा के विषय में जो प्रचलित . मान्यता हैं, उसका प्रतिषेध किया है । सत्त्व की उपलब्धि पंच-विज्ञानकाय और मनोविज्ञान द्वारा स्वीकृत की गई है। बौद्ध धर्म में उसे चित्त, चित्त का प्रवाह और विज्ञान के नाम से प्रस्तुत करते हैं और वह प्रतीत्यसमुत्पन्न है। चित्त ही परम तत्त्व है. और स्कंधों के सुयोजित संयोजन से उसकी उत्पत्ति होती है । बाह्य रूपों की तरह वह भी प्रतिक्षण उत्पन्न और विलीन होती है। चित्त का प्रतिक्षण उत्पन्न और विलीन होने के साथ चित्त का प्रवाह शरीर की चेतनावस्था में और मृत्यु बाद भी प्रवाहित रहता है। - जहाँ तक तृष्णा का संपूर्ण निरोध नहीं होता है, तब तक चित्त का प्रवाह अक्षुण्ण रूप से बहता रहता है - याने जन्म-पुनर्जन्म की परंपरा जारी रहती है। पुनर्जन्म की घटना को प्रतिसन्धि भी कहते हैं। __.. इस भवचक्र की परंपरा को बुद्ध ने कार्य-कारण के सिद्धान्त के अनुरूप ही प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धान्त के द्वारा समझाया है । - इसका तात्पर्य है 'अस्मिन् सति इदं भवति ।' - अर्थात् इस कारण के होने से इस घटना घटती है। कारण से ही कार्य

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