Book Title: Bauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Author(s): Niranjana Vora
Publisher: Niranjana Vora

View full book text
Previous | Next

Page 19
________________ बौद्धधर्म में प्रतिपादित कर्मसिद्धान्त आज २६०० साल के बाद भी बौद्ध धर्म में ऐसी तो संजीवनी है, शक्ति है कि सांप्रत समय के संघर्षमय जीवन की अनेक समस्याओं के निसंकरण के लिये हम उसके सिद्धांतो में से मार्गदर्शन पा सकते हैं । बुद्ध के अपने समय में भी व्यक्ति और समष्टि के जीवन में अनेक प्रकार की अराजकता; अव्यवस्था और विसंवादिता थी। ईश्वर, मोक्ष और स्वर्ग प्राप्ति की भ्रमणा में विपथगामी लोग अंधश्रद्धा प्रेरित कर्मकांड में अपने समय-संपत्ति और शक्ति का व्यय करते थे। ज्ञातिप्रथा और उच्चनीच के भेदभाव विकास में बाधारूप थे। आत्मवाद, ईश्वरवाद और प्रारब्धवाद के वादविवाद में उलझे हुए सामान्य जन-जीवन को बुद्धने सही वास्तविकता का परिचय दिया । उन्होंने आत्मवाद, ईश्वरवाद और प्रारब्धवाद का खंडन करके अनात्मवाद, अनिश्वरवाद और क्षणभंगुरवाद के प्रतिपादन के साथ कर्म सिद्धांत की महत्ता भी प्रस्तुत की और सदाचाररूप आर्य अष्टांगिक मार्ग का उपदेश दिया। बौद्ध धर्म का लक्ष्य निर्वाणप्राप्ति : . . बुद्ध के समय में लोग सृष्टि के सर्जक के रूप में ईश्वर को ही मानते थे। लोगों के जीवन का साध्य या सर्व प्रवृत्तिओं का केन्द्र यह ईश्वर प्राप्ति, स्वर्ग प्रासि या मोक्ष प्राप्ति था। लेकिन बुद्ध की बुद्धिवादी प्रतिभा को यह स्वीकार्य नहीं था। उनकी दृष्टि से 'निब्बानं परमं सुखम्' - निर्वाण ही परम सुख एवं साध्य था। राद्वेषादि से रहित मन की शांत-स्वस्थ स्थिति-जो आत्यंतिक दुःख निवृत्ति को उत्पन्न करती है, वही उनकी साधना का लक्ष्य था। इसी जन्म में निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है। निर्वाण रोग के अभाव की तरह परम शांत अवस्था है । इस अमृतरूप निर्वाण को प्राप्त करने के लिये उनकी दृष्टि से आत्मवाद, ईश्वरवाद और प्रारब्धवाद निरर्थक थे। उसके विकल्प में उन्होंने पंच उपादान स्कंध, प्रतीत्य समुत्पाद और कर्म के सिद्धांत का प्रतिपादन किया ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130