Book Title: Bauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Author(s): Niranjana Vora
Publisher: Niranjana Vora

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Page 14
________________ *बौद्ध धर्मशासन और पर्यावरण संरक्षण "कोई दंड से दमन करता है, कोई शस्त्र और चाबुक से, तथागत के द्वारा • मैं बिना दंड और बिना शस्त्र से दमित कराया हूँ। पहले मैं हिंसक था, आज अहिंसक राजा प्रसेनजित भी वहाँ आता है, जो बडी भारी सेना के साथ डाकू अंगुलिमाल को पकडने के लिये जा रहे थे, वे तथागत के सानिध्य में केशरहित मस्तकवाले काषायवत्रों धारण किये हुए अंगुलिमाल को भिक्षु के रूप में देखते हैं और बडे विस्मय का अनुभव करते कहते हैं - "भगवान, जिसे हम दंड और शस्त्र से भी वश नहि कर पाये, उसको आपने बिना शस्त्र से पराजित किया है।" यहाँ अहिंसा और मैत्रीभावना का विजय है । इससे आंतरिक और बाह्य परिवेश-व्यक्ति और समुदाय दोनों के हित की दृष्टि से और प्राकृतिक वातावरण में भी विशुद्धि, प्रसन्नता और शांति का अनुभव सहज बनता है। · पर्यावरण और परस्परावलंबन : . वन-जंगल आदि केवल वृक्ष का समूह वनस्पति का उद्भवस्थान ही नहीं है, लेकिन पृथ्वी पर के अनेक जीवों के जन्म, जीवन और मृत्यु के परस्पर अवलंबनरूप एकम हैं । वास्तविक दृष्टि से पृथ्वी के सर्व जीवों के लिये वृक्ष-वनस्पति सहित परस्पर अवलंबनरूप, एक आयोजनबद्ध व्यवस्था है। मनुष्य ने अपने स्वार्थवश कुदरत की यह परस्परांवलंबन की प्रक्रिया में विक्षेप डाला है। निष्णात लोगों का मत है कि प्रत्येक सजीव का पृथ्वी के संचालन में अपना योगदान है। लेकिन आज पृथ्वी पर का जैविक वैविध्य कम होता जा रहा है । वन और वनराजि - 'जीवजंतु, पशुपक्षी आदि का बडा आश्रयस्थान है। लेकिन जंगल के जंगल ही जब काटे जा रहे हैं, तब उसमें रहनेवाले पशुपक्षियों की सलामती कैसे रहेगी । सौंदर्य प्रसाधनों के उत्पादन के लिए हाथी, वाघ, मगर, सर्प आदि की अनेक संख्या में निर्मम हत्या की जाती है । कीटकनाशक दवाओं से भी असंख्य जीव-जंतुओं का नाश होता है । वनसृष्टि के विनाश से उपजाउ जमीन भी बंजर बन जाती है, रणप्रदेशों का विस्तार बढता हैं। इस दृष्टि से गौतम बुद्धने सम्यक् आजीविका के लिये भी प्रशस्त नियम दिये हैं । जमीन को खोदने से उसमें रहनेवाले जीवों की हिंसा होती है इस लिये सुरंग आदि बनाना और खनीज संपत्ति का व्यापार करने का भी निषेध हैं । इस नियम का पालन करनेसे जीवों की रक्षा के साथ खनीजसंपत्ति का अनावश्यक उपयोग भी

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