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जैसे मृग चरते-चरते सिंह की आशंका से दूर रहता है। वैसे ही विवेकी व्यक्ति भी धर्म का आचरण करते हुए पाप कर्म से दूर रहते हैं। पाप करते समय जीव को परिणामों का ख्याल नहीं रहता परन्तु बाद में वह परवश हो जाता है। इस परवशता से बचने के लिए हमें भीतर में पाप भीरुता को विकसित करना चाहिए।
बड़ का बीज बहुत छोटा होता है, परन्तु उसमें वटवृक्ष बनने की क्षमता होती है। वैसे ही छोटे से पाप को अनुकूलता मिलने पर वह भयंकर रूप धारण कर लेता है। अग्नि की चिंगारी दिखने में भले ही छोटी हो परन्तु वह घास या रुई के ढेर पर गिर जाए तो विकराल बन जाती है और सर्व विनाश कर देती है। छोटा-सा दूषित विचार भी कषायों के संसर्ग से पूरे जीवन को दूषित करने वाला बन जाता है इसलिए छोटे से पाप के विचार से भी हमें बचना चाहिए।
अज्ञानी व्यक्ति दुःख आने पर निमित्त पर दोषारोपण करता है, पर अपने किए गए पाप के उदय का विचार नहीं करता। सबको कहता है उसके कारण मुझे नुकसान हुआ।अमुक के कारण मेरा घर बर्बाद हो गया। भीतर-ही-भीतर विलाप करता हुआ वह चिंता-तनाव मग्न हो जाता है और अपने चित्त की प्रसन्नता को खो देता है।
दुःख की इसी स्थिति में ज्ञानी व्यक्ति की चित्त की दशा ठीक विपरीत होती है। संकट की घड़ी आने पर वह सोचता है यह मेरे किये गए कर्मों का ही परिणाम है । ऐसा व्यक्ति किसी पर दोषारोपण नहीं करता और आए हुए दुःख को समभावपूर्वक सहन करता है। चाणक्य-नीति में कहा गया है -
यथा धेनु सहस्रेषु, वत्सो विन्दति मातरम्।
तथैवैह कृतं कर्म, कर्तारमनुगच्छति॥ हज़ारों गायों के होने पर भी बछड़ा सीधा अपनी माता के पास जाता है वैसे ही इस संसार में कृत-कर्म अपने कर्ता का ही अनुसरण करता है अर्थात् उसी को सुख-दुःख का फल देता है।
फ्रांस के महाकवि फ्रेन्कुइस अपनी बाल्यावस्था में मेधावी और प्रतिभावान् छात्र थे, पर यौवनकाल में आवारा-अपराधी मित्रों की संगति में आ जाने के कारण उनके जीवन में अपराधों का प्रवेश हो गया। जेब काटने से शुरू 14 |
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