Book Title: Bahetar Jine ki Kala
Author(s): Chandraprabhashreeji
Publisher: Jain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta

View full book text
Previous | Next

Page 43
________________ विषय-सुख की अभिलाषा से जिस अकरणीय कार्य को करता है वह व्यसन ही है । सामान्यतया जो मनुष्य को व्यस्त करे वह व्यसन है । सत्कार्यों में व्यस्त रहना सद्व्यसन और असत्कर्म में लगना कुव्यसन है । कुव्यसन पहले प्राणी को लुभाते हैं, मोहित करते हैं फिर उसके प्राणों तक का हरण कर लेते हैं । जैसे अनाज में घुन लग जाता है तो वह उस अनाज को खोखला कर देते हैं उसी प्रकार व्यसन मनुष्य के शरीर को चूसकर उसको निस्तेज और खोखला कर देते हैं । यह एक चेपी रोग है जो पहले किसी मित्र या साथ में रहने वाले के कुसंग से लगता है फिर वह धीरे-धीरे सबको अपने ग्रास में ले लेता है । इससे गुणों के साथ व्रत, तप, तेज नष्ट हो जाते हैं । व्यसन का वर्णन करते हुए नीतिकारों ने कहा है - दुःखानि तेज जन्यन्ते, जलानीवाम्बु वाहिना । व्रतानि तेन धूयन्ते, रजांसि भरुता यथा ॥ जैसे जल के स्रोत से जल प्राप्त होता है वैसे ही व्यसनों से दु:ख प्राप्त होते हैं। जैसे वायु से धूलि उड़ जाती है वैसे ही व्यसनों से व्रत धूमिल हो जाते हैं । व्यसन में डूबने पर व्यक्ति उससे उभरने की तो कोशिश करता नहीं है । अपितु जो उसे व्यसन मुक्त होने का सन्देश देता है उसके समक्ष कुतर्क करता है ऐसा हुआ, ईसा मसीह का एक भक्त था । जो रोज़ गिरिजाघर में जाकर प्रार्थना करता था। दया- भाव से युक्त होने के कारण ग़रीबों की बहुत सेवा करता था। लेकिन उसमें शराब पीने की बहुत बुरी आदत थी । उसके अस्वस्थ रहने पर उसे डाक्टरों ने शराब पीने से मना किया परन्तु अपनी आदत के आगे मज़बूर था । एक बार वह अपने फैमिली डाक्टर के साथ होटल में गया। वहाँ भोजन लेने के पश्चात् उसने शराब मंगायी और पीनी शुरू कर दी। डाक्टर ने कहा यदि आप अपना भला चाहते हैं तो इसे छोड़ दें यह आपकी जानी दुश्मन है । Jain Education International डॉक्टर साहब की बात सुनकर व्यक्ति ने गंभीर होकर कहा साहब! आपका कथन बिल्कुल सही है। मुझे यह मालूम है इसे पीने से मेरी बीमारी बढ़ रही है और उम्र घट रही है, पर मैं भी क्या करूँ। मैं मज़बूर हूँ । मेरे 42 | For Personal & Private Use Only - डाक्टर - www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122