Book Title: Bahetar Jine ki Kala
Author(s): Chandraprabhashreeji
Publisher: Jain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta

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Page 104
________________ बालवृद्ध यतीनाञ्च, रोगिणां यद् विधीयते। स्वशक्त्या यत्प्रतीकारो, वैयावृत्य तदुच्यते॥ बाल, वृद्ध, रोगी, साधु की पीड़ा का जो अपनी सेवा-शक्ति से प्रतीकार अर्थात दूर करता है वह सेवा कही जाती है। तमन्ना दर्दे दिल की हो तो, कर खिदमत फकीरों की। नहीं मिलता है यह गौहर, बादशाहों के खजाने में। मनुष्य तो क्या प्रकृति में भी निरपेक्ष-भाव से सेवा-भाव दृष्टिगोचर होता है। जैसे-पेड़, पहाड़, नदियाँ झरने आदि। प्रकृति का हम पर बहुत उपकार है। बादल समुद्र से ग्रहण जल करता रहता है। उसका मुँह काला हो जाता है और जब वह देता है तो देता रहता है जब वह निरन्तर देता है तब उसका मुँह धवल, स्वच्छ, उज्ज्वल हो जाता है। इसी प्रकार मनुष्य यदि केवल लेता ही रहा, देगा नहीं तो वह दम्भी, अहंकारी हो जाएगा। यह संसार खत्म हो जाएगा क्योंकि मूल प्रवृत्ति'परोस्परोपग्रहो जीवानाम्' पर कुठाराघात होगा। मनुष्य सद्गति को प्राप्त नहीं कर सकेगा। इसलिए सेवा भाव आवश्यक है। ___'भगवती आराधना' में कहा गया है कि जो सेवाभावी है, परोपकारी है, जो मन-वचन-काया एवं तन-मन-धन से सेवा करते हैं उनके तीर्थकर प्रकृति का बंध होता है, पर यह बंध तभी होगा जब सेवा, दया, क्षमा, करुणा आदि धर्मों का आचरण अहं-ममता की विस्मृति के साथ हो, सहज-स्वाभाविक संस्कारों से युक्त हो। सेवा में वात्सल्य भाव होना अत्यन्त आवश्यक है। जब तक सेवा में वात्सल्य का झरना प्रवाहित नहीं होगा, तब तक उसमें तन्मयता, सरसता, आत्मीयता नहीं आएगी। सेवा में अहं, ममता के साथ शरीरादि का विस्मरण, विसर्जन भी अत्यन्त आवश्यक है। ___एक माँ अपने बच्चे को गोद में लेकर चुप कराती है, नहलाती है, सर्दी, गर्मी, वर्षा से उसकी रक्षा करती है। स्वयं भूखी-प्यासी रहकर उसकी भूखप्यास से रक्षा करती है। अपने भूख-प्यास की चिन्ता नहीं करके वह बच्चे की सेवा में तल्लीन रहती है। स्वयं का खाना, पीना, सोना भूलकर, शरीर की परवाह किए बिना खुद गीले में सोकर बच्चे को सूखे में सुलाती है। स्वयं की | 103 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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