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रुपये देते तथा उसक नाम पूछकर उसकी सेवा भावना की तारीफ करते। वह व्यक्ति आधे रूपये ख़ुद रखता बाकी के उन व्यक्तियों में बाँट देता। एक सेठ की कार तीन दिन तक आते-जाते वक्त उसी स्थान पर फँस जाती। वे लोग आकर कार निकाल देते। सेठ ने उस व्यक्ति से पूछा कार यहीं क्यों फँसती है। उस व्यक्ति ने सच-सच सारी बात कह दी कि मैंने यहाँ दलदल-कीचड़ बना रखा है। जैसे ही कोई गांडी फँसती है मैं अपने साथियों को बुलाकर गाडी निकलवा देता हूँ। लोग मेरी तारीफ भी करते हैं तथा इनाम भी देते हैं। इस प्रकार सेवा भी हो जाती है, मेरा यश फैल जाता है, धन की प्राप्ति होने से मेरे परिवार का खर्चा भी निकल जाता है।
वह व्यक्ति पैसे एवं नाम के लोभ में पहिले दलदल फैलाता है। गाड़ियाँ फँसवाकर निकलवाता है। फिर उनकी सेवार्थ नाम कमाता है। क्या यह उचित है? क्या यही सेवा है ? भाग्यशालियों मेरा तो आपसे यही निवेदन है कि यदि आप किसी संकट में फँसे व्यक्ति या प्राणी मात्र को संकट में से नहीं निकाल सकते हैं, सेवा नहीं कर सकते हैं तो इस तरह फँसाने का कार्य भी मत करना। आज ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं। ___शिक्षा में, चिकित्सा में, सेवा भावी संस्थाएँ आज सेवा के नाम पर स्वार्थ के खेल खेल रही हैं। सस्वार्थ रखकर की जाने वाली सेवा, सेवा नहीं इंसानियत का गला घोटना है। वासवदत्ता मथुरा की सर्वश्रेष्ठ नर्तकी थी। अत्यन्त सुन्दर, गौर वर्ण की हर कोई उसे देखता प्रभावित हो जाता। एक दिन उसने अपने महल के झरोखे से एक सुन्दर युवक को दीन-हीन हालत में देखा। वासवदत्ता उस युवक के सौन्दर्य को देखकर मुग्ध हो जाती है और शीघ्रता से सीढ़ियों से उतर कर नीचे आती है।
नीचे आकर उसने पुकारा - 'भंते!' मन्द-मन्द गति से चलते हुए संत समीप आया और उसने अपना पात्र आगे बढ़ाया। वासवदत्ता ने कहा -आप ऊपर पधारें। मेरा भवन, सम्पत्ति, ऐश्वर्य और स्वयं मैं आपकी हूँ। सभी आपकी सेवा के लिए है आप इसे स्वीकार करें। संत ने कहा - आज उचित अवसर नहीं है। मैं तुम्हारे पास फिर आऊँगा। लेकिन तुम्हें अपने चारित्र की रक्षा करनी चाहिए। अन्यथा परिणाम बुरे भी हो सकते हैं। वासवदत्ता ने कहा
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