Book Title: Bahetar Jine ki Kala
Author(s): Chandraprabhashreeji
Publisher: Jain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta

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Page 111
________________ - मैं तुम्हारे मतलब को नहीं समझी, पर तुम्हें अवश्य आना है।संत ऊपर नहीं गया उसने कहा उचित अवसर आने पर अवश्य आऊँगा। ___ समय बीतता गया। कर्म की गति न्यारी होती है। कहा गया है कि सौन्दर्य हो, सम्पत्ति हो और युवावस्था हो उस समय यदि कोई सन्मार्ग दिखाने वाला नहीं हो तो व्यक्ति अनर्थ में चला जाता है। ऐसा ही हुआ वासवदत्ता के जीवन में। समय बीतता गया। अपने दुराचरण के कारण वासवदत्ता भयंकर रोगों से घिर गई। कोई भी उसकी देखभाल करने वाला नहीं था। उसके ऐश्वर्य के दिनों में सभी उसके साथी थे, पर अब सभी नाक सिकोड़कर उसके आगे से जा रहे थे। वासवदत्ता राजमार्ग पर एक तरफ निराश्रित पड़ी थी। वस्त्र फटे हुए थे। शरीर पर जगह-जगह घाव हो गए थे। घावों के कारण शरीर से अत्यन्त दुर्गन्ध आ रही थी। असंख्य मक्खियाँ भिन्न-भिन्ना रही थी। वह एक घुट पानी तक के लिए तरस रही थी। पर कोई उसकी सुध नहीं ले रहा था। प्रत्येक व्यक्ति को अपने किये का परिणाम भुगतना ही पड़ता है। अगर हम अपनी इन्द्रियों का उपभोग संयम के साथ नहीं करेंगे यही इन्द्रियाँ अंततः हमारे दुःख का कारण बन जाएंगी ऐसा ही घटित हुआ वासवदत्ता के जीवन में। अचानक वह संत उधर से गुजरा। सड़क पर पड़ी वासवदत्ता कराह रही थी। उसकी शक्ति क्षीण हो गई थी। सौन्दर्य और लावण्य रोगों में परिवर्तित हो चुका था। अपने एक-एक पल को कष्ट से व्यतीत करती हुई वासवदत्ता पर उस संत की दृष्टि पड़ी। उसने पास जाकर भली-भाँति पहचानकर कहा – भने, मैं आ गया हूँ। अत्यन्त कठिनाई से वासवदत्ता ने धीरे से कहा- बहुत देर कर दी। अब मेरे पास क्या रखा है। मेरा सब कुछ नष्ट हो गया है इतना कहकर वह बेहोश हो गई। संत ने मन ही मन सोचा - सम्पत्ति, रूप, युवावस्था में इसके पास हर कोई रहता, सब इसके बाहर के संसार से जुड़े हुए थे, मुझे मालूम था एक दिन यही लोग इसका तिरस्कार कर बैठेंगे। अब इसके पास कुछ भी नहीं होने से इसका कोई नहीं है। लगता है मेरे 110 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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