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पालन करना पड़ेगा, पर आशुतोष की अंर्तआत्मा ने माँ की आज्ञा को शिरोधार्य करने के लिए प्रेरित किया और उन्होंने उपकुलपति पद एवं काउंसलिंग मेम्बर के पद को छोड़ने हेतु त्याग पत्र लिखा। वे वायसराय के पास पहुँचे। वायसराय ने पूछा- क्या तुम्हारी माँ ने हाँ कर दी ? आशुतोष ने जेब में हाथ डाला और
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कागज निकालते हुए नीची नज़रों से कहा सर, माँ की तनिक भी आज्ञा नहीं, है कि मैं विदेश जाऊँ । सर ! मैंने आपकी आज्ञा का अनादर किया है । आप दोनों पदों के त्यागपत्र स्वीकार करके मुझे पद- मुक्त करें । वायसराय ने पहली बार समझा कि भारत में माँ का क्या महत्व है । वे उठे, आशुतोष के निकट पहुँचे और कहा कि मैंने यहाँ आकर भारत की संस्कृति से संबंधित बहुत-सा साहित्य पढ़ा पर पहली बार माँ के प्रति अहो भाव को चरितार्थ होते देखा है । मैं अभिभूत हूँ। तुम्हें विदेश नहीं जाना है तुम मेरे पास रहोगे। यह कहकर वायसराय ने त्यागपत्र फाड़ दिया ।
श्री आशुतोष की यह घटना क्या हमें अपने कर्तव्य का बोध कराएगी ? हमने भौतिक जीवन में जबदस्त उन्नति की है। हमारी जीवन शैली में बहुत बड़ा परिवर्तन होता जा रहा है। जिस माँ ने हमें जन्म दिया है और पाला-पोषा बड़ा किया उसने अनेक कष्टों को सहन किया है। माँ तो सिर्फ माँ ही होती है । यह वात्सल्य की प्रतिमूर्ति है। उसके रोम-रोम में अपनी सन्तान के प्रति अपूर्व प्रेम का झरना सतत् प्रवाहित होता रहता है। माँ के प्रेम की तुलना हम दुनिया में किसी से नहीं कर सकते हैं। उसके जीवन की एक ही अभिलाषा रहती है कि मेरी सन्तान ख़ूब सुखी रहे। माँ की सदा अभिलाषा रहती है कि मेरी सन्तान मेरी कोख को लज्जित नहीं करें अपितु उसके गौरव को बढ़ाए। उसकी ईश्वर की आराधना में भी यह सोच होती है कि हे भगवान! मेरी सन्तानों का कल्याण कर ।
पर आधुनिक युग में सुखी जीवन की अभिलाषा वाली माँ अपने ही समक्ष स्वप्नों के सम्पूर्ण महल को ढहता हुआ देख रही है । आज पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित होने के कारण युवा दूरगामी परिणामों को देखने का प्रयत्न नहीं करते हैं। एकाकी जीवन व्यतीत करना पसन्द करते हैं। सिर्फ अपनी पत्नी और सन्तान के अतिरिक्त चाहे माँ-बाप हों या अन्य परिवार के लोग सभी को वे बन्धन मानते हैं। व्यक्ति संवेदनहीन बनता जा रहा है । हमारे संस्कार, परिवारों के अटूट रिश्ते समाप्त प्रायः हो रहे हैं या छोटे से दायरे में सिमट रहे
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