Book Title: Bahetar Jine ki Kala
Author(s): Chandraprabhashreeji
Publisher: Jain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta

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Page 119
________________ बोलती अन्यथा घर का सारा काम उससे करवाती। मिट्टी के बर्तनों में खाने को देती। परिवार के सभी सदस्य स्टील के बर्तनों में खाते। माँजी को अत्यधिक दुःख होता था लेकिन वह मन ही मन ग़म को पी रही थी। किसी से कुछ नहीं कहा। ___ माँजी प्रतिदिन भोजन करके मिट्टी के पात्र को धोकर पौंछकर घर के एक कोने में रख देती। जिससे किसी को पता नहीं चले। एक दिन बुढ़िया के पोते ने अचानक माँजी को मिट्टी के बर्तनों में भोजन करते देखा तो पूछा आप इन बर्तनों में भोजन क्यों करती हो? माँजी ने सोचा कि यदि मैं इसे सत्य बता दूंगी तो मेरे साथ और भी दुर्व्यवहार हो सकता है। यह सोचकर वह मौन रही। परन्तु पोते के अत्यधिक आग्रह करने पर उसने सोचा कि झूठ बोलने से भला क्या लाभ? कष्ट तो वैसे भी सह रही हूँ। मैं इसे सच-सच सारी बात कह दूँ। दादी ने कहा - बेटा, तेरी माँ मुझे इन्हीं बर्तनों में खाना देती है। पोते ने कहा- दादी! घर में इतने स्टील के बर्तन हैं आप उसमें ले लिया करो। दादी ने अपनी सारी व्यथा सुनायी और कहा तुम स्कूल चले जाते हो और तुम्हारे पापा आफिस पीछे से तुम्हारी माँ मुझसे खूब काम करवाती है, खाना भी रूखा, सूखा बचा हुआ देती है, रसोई में खाने नहीं देती इस तरह अपनी व्यथा को कहा। माँ उस समय घर से बाहर थी। इसलिए दादी-पोते को बात करने का अच्छा मौका मिल गया। उसने बताया कि कितने कष्ट उठाकर अपने लड़के को पढ़ाया, लिखाया, होशियार किया आज उसका यह नतीज़ा है, पर मुझे यह भी ख़ुशी है कि मेटा बेटा-पोता तो आराम में है। यह कहते-कहते दादी की आँखों में आँसू आ गए। दादी की बातें सुनकर पोते को बहुत कष्ट हुआ। उसने सोचा मुझे कुछ भी करना करना पड़े पर दादी माँ आराम से रहे यह तो करना ही होगा। उसने दादी को अपनी योजना बताई माँ आ गई थी। इसलिए वह वहाँ से हट गया। दादी भी काम में लग गई। दूसरे दिन माँजी ने मिट्टी के बर्तन में भोजन किया और धोने के बहाने उन बर्तनों को तोड़ दिया। बर्तनों के टूटते ही बहू का गुस्सा आसमान पर चढ़ गया। वह नाराज़ होकर बोली अब तुम किसमें भोजन करोगी। देखकर काम नहीं 1187 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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