Book Title: Bahetar Jine ki Kala
Author(s): Chandraprabhashreeji
Publisher: Jain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta

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Page 105
________________ बीमारी का ध्यान नहीं रखकर बच्चे की परिचर्या में लीन रहती है । परन्तु उसी माँ को यदि कोई यह कहे कि तुम दिन-रात इतना कष्ट सहन करके इन बच्चों की सेवा में क्यों लगी हुई हो। वह माँ यह नहीं कहती है कि ये मेरा कर्तव्य है इसलिए मैं इनकी सेवा कर रही हूँ। वह मुँह से अक्सर कुछ कह नहीं पाती है, पर उसका अन्तर्मन कहता है मेरा वात्सल्य ही इस बच्चे की सेवा करा रहा है । मैं इसके बिना नहीं रह सकती । इसने भोजन कर लिया तो मानो मैंने भोजन कर लिया, मुझे तृप्ति हो जाती है। चाहे मेरे लिए बचे या न बचे। माता सेवा के लिए नहीं करती वह वात्सल्यमूर्ति बन कर स्वयं वात्सल्यमयी बन जाती है । सन्तान की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देती है । प्रकृति एवं मनुष्य की सेवा में अन्तर है। प्रकृति जो सेवा करती है उसे कुछ प्राप्ति की अभिलाषा नहीं है। उनका जीवन ही परोपकार के लिए है । पेड़ धूप सहन करता है, सर्दी सहन करता है, वर्षा सहन करता है तब फल प्रदान करता है । पशु, पक्षी और माँ की सेवा भावना में भी थोड़ा अन्तर है। माँ की सेवा वात्सल्यमयी होने के बावज़ूद भी किञ्चित् स्वार्थमयी है। वह यह है कि मेरा बेटा बड़ा होगा, ऊँचे पद पर काम करेगा, उसकी शादी होगी, बेटा-बहू हमारी सेवा करेंगे । पशु-पक्षियों में यह भावना नहीं होती है कि हमारी सन्तान बड़ी होगी, अनाज दाना चुग्गा लाकर देंगे। इस स्वार्थ भाव के अतिरिक्त माँ में अपने लड़के-लड़की के लालन-पालन में न तो कोई अन्य भाव रहता है न ही किसी प्रकार का अपेक्षा भाव । आज विडम्बना है कि कष्टों को सहकर अपनी सन्तान का लालन-पालन करने वाले माता - पिता की सेवा बच्चे बड़े होकर नहीं करते हैं, उनका तिरस्कार करते हैं। इस घटना से यह स्पष्ट हो जाएगा कि आज माता-पिता की क्या स्थिति हो रही है एक पुत्र अपनी माता को पत्र लिखता है कि आप यात्रा के लिए तैयारी कर लीजिए। मैं रविवार को सुबह आ रहा हूँ । दोपहर में हम यात्रा के लिए जाएँगे। माँ-बेटे का पत्र प्राप्त करके अत्यधिक ख़ुश होती है । बहू को पत्र पढ़ाती है, मोहल्ले एवं रिश्तेदारों में मिठाई बाँटती है। लोग पूछते हैं किस स्थान की यात्रा पर जा रही हो तो माँ कहती है मेरे लाडले ने स्थान गुप्त रखा है। पहिले से तैयारी करने के लिए लिखा है तो दूर ले जा रहा होगा। माँ अपने 104 | Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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