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सेवा से करें समय को सार्थक सेवा करने वाले हाथ उतने ही प्रणम्य हैं जितने कि संतों के चरण-कमल।
सेवा धर्म का सरल एवं विशिष्ट अंग है। यह किसी पंथ-परंपरा या सम्प्रदाय का नहीं अपितु मानवीय धर्म है। एक जीव दूसरे जीव की सेवा एवं उपकार करके ही जीवित रह सकता है। जो सेवा को धर्म नहीं समझते वे अज्ञान में है। मनुष्य जन्मता है वह अपना कल्याण करता है साथ ही दूसरों का मार्गदर्शक भी बन सकता है। मार्गदर्शक के रूप में अनेक भेद-प्रभेद हो सकते हैं, उनमें एक भेद सेवा भी है। कहा गया कि
___ वैयावच्चं नियंय करेह, उत्तर गुणे धस्तिाणं।
सव्वं किल पडिवाई वैयावच्चं अपडिवाई॥ अर्थात् उत्तम गुण धारण करने वालों की नियमित सेवा करो। सब गुण भूलाए भी जा सकते हैं पर सेवा का गुण कभी नहीं भुलाया जा सकता है। जो सुखी है हम उसकी सेवा करें तो यह सेवा असली सेवा नहीं, सामान्य सेवा है। वास्तविक सेवा तो इनमें हैं -
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