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माला पर पड़नी चाहिए। उसे फोड़े-फुंसी पर बैठने वाली मक्खी की तरह नहीं बनना है। अपितु पुष्प-पराग लूटने वाले भ्रमर की तरह बनना है । 'गुणिषु प्रमोदम्' के सूत्र को सार्थकता प्रदान करनी है ।
गुणानुराग से मात्सर्य भाव का विनाश होकर विनय, विनम्रता आदि सद्गुणों की वृद्धि होती है। मनुष्य की जैसी दृष्टि होती है वैसी ही उसे सृष्टि दिखाई देती है ।"
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महाभारत का एक प्यारा-सा घटना प्रसंग है। कौरव एवं पाण्डव दोनों अपने विद्या गुरु के पास अभ्यास करने जाते हैं। पुराने जमाने में विद्यार्थियों की परीक्षा करके ज्ञान दिया जाता था। आचार्य ने दुर्योधन और युधिष्ठिर दोनों की परीक्षा ली । दुर्योधन को बुलाकर कहा कि तुम इस गाँव में जाओ और गुणवान मनुष्यों की गिनती कर आओ । युधिष्ठिर से कहा तुम इस गाँव में जाओ और देखो कितने अवगुणी व्यक्ति है। दोनों अपने-अपने स्थल पर जाते हैं। दुर्योधन वापिस लौटकर आता है और कहता है – गुरुदेव ! आपके कहे अनुसार मैंने बहुत खोज की, पूरे गाँव में घूमा पर मुझे एक भी गुणी व्यक्ति इस गाँव में नहीं मिला। कोई अहंकारी था, कोई कंजूस था, कोई जुआरी था, इस प्रकार अमीर से लेकर ग़रीब तक सभी में अवगुण थे ।
युधिष्ठिर भी आचार्य के पास आया और कहा गुरुदेव ! आपने मुझे जिस काम के लिए भेजा वह मैं कर आया। मैं व्यक्तियों की गिनती नहीं कर सका। मुझे इस गाँव में एक भी अवगुणी दिखाई नहीं दिया । नीच से नीच व्यक्ति में भी कोई न कोई गुण अवश्य था । कसाई में अपने द्वारा किए जा रहे कार्य के प्रति निंदा का भाव था, प्रायश्चित का भाव था । वह हिंसा कार्य को हेय समझकर छोड़ना चाहता है, पर आजीविका के समक्ष मज़बूर होकर नतमस्तक है। मैंने तो जितनों को देखा, सभी में कोई न कोई गुण अवश्य था ।
युधिष्ठिर के इस उत्तर से गुरुदेव प्रसन्न हुए । उन्होंने सोचा कि यही वास्तव में ज्ञान प्राप्त करने के योग्य है ।
वास्तव में श्रावक की दृष्टि कृष्ण की तरह, युधिष्ठिर की तरह होनी चाहिए। इस संसार में कोयले एवं हीरे दोनों मिल सकते हैं। आप दोनों में से किसी के भी ग्राहक बन सकते हैं, पर याद रखिए यदि कोयले के ग्राहक बनेंगे
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