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ओत-प्रोत थी। उसके विरक्त भावों को देखकर शाह ने उसका विवाह एक ज्ञानी फकीर से कर दिया, जिससे उसकी पुत्री की धर्म-भावनाओं को कभी ठेस नहीं पहुँचे और वह इच्छानुसार अपना जीवन व्यतीत कर सके।
शाह शुजा की पुत्री फकीर पति के साथ अत्यन्त प्रसन्नता से कुटिया में रहती है। उसने वहाँ की सफाई करते समय कुटिया के छप्पर से एक छींका लटकता हुआ देखा जिसमें दो सूखी रोटियाँ रखी थी। उसने आश्चर्य से अपने पति की ओर देखा तथा पूछा – ये रोटियाँ यहाँ क्यों रखी हैं ?
__फकीर ने उत्तर दिया - कल हम एक-एक खा लेंगे। पति की बात सुनकर पत्नी ने हँसते हुए कहा – मेरे पिता ने तो आपको वैरागी और अपरिग्रही फकीर समझ कर ही मेरा विवाह आपके साथ किया था। किन्तु अफसोस है, आपको कल के खाने की चिन्ता आज ही है। फिक्र करने वाला सच्चा फकीर नहीं हो सकता है। अगले दिन की चिन्ता तो घास खाने वाला जानवर भी नहीं करता है फिर हम तो मनुष्य हैं । हमें यदि कुछ मिला तो हम खा लेंगे अन्यथा आनन्दपूर्वक, प्रेमपूर्वक रहेंगे तथा ख़ुदा की बंदगी करेंगे।
फकीर ने जब अपनी पत्नी के यह विचार सुने तो मन ही मन कहने लगा - हे देवी! तू धन्य है । अब मेरा जीवन सार्थक हो गया।
परन्तु मानव की यह शोचनीय प्रवृत्ति है कि हम वस्तुस्थिति से पलायन कर जाते हैं। आज का काम कल, परसों यहाँ तक कि वर्षों के लिए छोड़ देते हैं। जीवन बनाने के लिए बालक का यह कहना है कि अभी तो मैं बच्चा हूँ बड़ा होने पर देखूगा। किशोर कहता है कि यह उम्र खेलने-कूदने की है मैं युवावस्था में कुछ करूँगा।युवा कहता है कि यह मौज-शौक की उम्र है बाद में करूँगा। गृहस्थ बनने पर उसे उसके झंझटों से ही मुक्ति नहीं मिलती और वृद्धावस्था आने पर बहुत विलम्ब हो जाता है। जब कामकाज से छुट्टी मिलती है तब अतीत पर दृष्टिपात करने पर ऐसा लगता है कि मानों सब कछ समाप्त हो गया है और रहता है मात्र पश्चाताप । हमारे जीवन की यह छोटी-सी शोभा यात्रा कितनी विचित्र है। खाली हाथ आए और अभी नहीं बाद में करेंगे इस कारण खाली हाथ जा रहे हैं। जबकि प्रत्येक पल का पूर्ण दोहन ही जीवन की सार्थकता है।
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