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तो उसके कालेपन से आपके हाथ काले होंगे। हीरे के ग्राहक बनेंगे तो उसके प्रकाश से प्रकाशित होंगे। स्वयं के दोष दर्शन, पर दोष वर्जन, पर गुणानुरागिता से आप उन्नति के सोपान की ओर अग्रसर हो सकेंगे ।
जैसे एक चित्रकार सुन्दर चित्र बनाने के लिए सौन्दर्य समूह को अपने मन में संजोकर चित्र बनाता है । उसमें रही कमियों को दूर करता है। उसके मन में एक ही भाव रहता है येन-केन प्रकारेण यह चित्र सुन्दर बन जाए । उसी प्रकार स्वयं को भव्य रूप देने के लिए हमारे अन्दर स्थित अवगुणों को देखकर हमें उन्हें उलीचना है । बाहर निकालना है तथा गुण रूपी सुन्दर आकृति से स्वयं को सजाना है । बाह्य रूप, रंग, सौन्दर्य का कोई मूल्य नहीं है। यदि मूल्य है तो आन्तरिक गुणों का, सौन्दर्य का । कहा भी है
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सूर्य की शोभा आकाश से नहीं उसके प्रकाश से है । चन्द्र की शोभा गगन से नहीं उसकी शीतलता से है। पुष्प की शोभा उपवन से नहीं उसके सुवास से है । मनुष्य की शोभा रूप से नहीं उसके गुणों से है ।
हम अपने विचारों से ही महान् बनेंगे। विचारों से ही देव, दानव और पशु बनेंगे। यदि आपने अपने मन में सोच लिया कि मुझे अपने दोषों का त्याग करना है आप अपने इस अच्छे विचार पर सुदृढ़ हैं तो बाहर से चाहे जितने झंझावात आएँ, तूफान आएँ, कितनी ही आलोचना की आँधियाँ चले अपने प्रण एवं कर्त्तव्य से नहीं हट पाएँगे। लड़ाई की हार इतनी हार नहीं, विचारों की हार ही सबसे बड़ी हार है। विचारों का वैभव बाह्य वैभव से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है । इस वैभव के होने पर मनुष्य संसार के मैदान में विजय प्राप्त कर सकता है । हमें अपने सुविचारों पर मज़बूती से पैर जमाए रखने हैं ।
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