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जिस प्रकार कीचड़ में गिरा हुआ सोना कीचड़ में लिप्त नहीं होता, इसे जंग नहीं लगता उसी प्रकार ज्ञानी संसार के पदार्थों से विरक्त होकर कर्म करता हुआ भी कर्म से लिप्त नहीं होता। किन्तु जैसे लोहा कीचड़ में गिरकर विकृत हो जाता है उसमें जंग लग जाता है उसी प्रकार अज्ञानी व्यक्ति पदार्थों में रागभाव रखने के कारण कर्म करते हुए विकृत हो जाते हैं । कर्म से लिप्त हो जाते हैं । फलस्वरूप आत्मा कर्मों के बंधन में बंध जाती है।
मनुष्य की प्रसन्नता, अप्रसन्नता का आधार उसके विचार है। दो व्यक्ति समान परिस्थिति, समान परिवेश के होते हैं, पर एक अपने सोच के आधार पर, विचार और भावना के आधार पर विषाद, परेशानी का अनुभव करता है और दूसरा उसी परिस्थिति में सदा सुख का अनुभव करता है। वास्तव में सुख और दुःख की अनुभूति मन से होती है। अक्सर यह भी देखा जाता है कि लोग सुखी होने पर भी दूसरों को सुखी एवं स्वयं को दु:खी समझते हैं। अपने भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही सुखों की अनुभूति नहीं कर पाते हैं। हर समय अपने जीवन में खाली गिलास अर्थात् दुःख को ही देखते हैं। आधे भरे गिलास अर्थात् जो भी सुख मिल रहा है उसका आनन्द नहीं उठाते । किसी ने कहा भी है -
बहुत से लोग बस अपने दुःखों के गीत गाते हैं, दीवाली हो या होली हो सदा मातम ही मनाते हैं, पर दुनिया उन्हीं की रागिनी पर झूमती है हरदम,
जो जलती चिता में बैठकर वीणा बजाते हैं। एक आदिवासी ने अपने गाँव में एक आदमी के जीवन की घटना का जिक्र करते हुए बताया कि सुखराम नामक व्यक्ति जंगल से लकड़ियाँ काटकर लाता और उन्हें बेचकर जो पैसे मिलते उनसे रूखा-सूखा खाकर रात को सो जाता। दिनभर की थकान से चूर होकर जब वह रात को अपनी टूटी खटिया पर सोता तो सुबह ही उसकी आँखें खुलती। किसी बात की चिंता या फ़िक्र नहीं थी उसे। कुछ दौलत नहीं थी, परआराम से दो वक़्त पूरा खाने को मिल जाए और तन ढंकने को कपड़े, इसी में सुखराम मस्त था।
लेकिन इसके ठीक विपरीत लकड़हारे की पत्नी को इतने में संतोष नहीं था। वह दिन-रात सुखराम को कोसती रहती कि कोई और ऐसा काम करें,
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