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दूसरों को बदलना हमारे हाथ में नहीं है, पर स्वयं को बदलना स्वयं के हाथों में है। ख़ुद को बदलना दूसरों से प्राप्त होने वाली अपेक्षा की बजाय उपेक्षा से मुक्त होने का सरल उपक्रम है। ___ एक करोड़पति आँख के दर्द से काफ़ी परेशान था। उसने बेहताश औषधियाँ निगली और सैकड़ों की संख्या में इंजेक्शन लिये लेकिन स्थिति ढाक के तीन पात की तरह ही रही।आख़िर उसने काफ़ी मशहूर एक भिक्षु की शरण ली, भिक्षु ने उसकी समस्या को बारीकी से समझकर उसे हरे रंग पर अपना ध्यान केन्द्रित करने की सलाह दी। सलाह पर करोड़पति ने पेंटरों से कहा कि वे हर उस चीज़ को हरे रंग में रंग डालें, जिनके कामकाज़ और घूमने-फिरने के दौरान उसकी नज़र में आने की संभावना हो।
। कुछ दिनों बाद जब वह भिक्षु करोड़पति मिलने आया तो उसके नौकर हरे पेंट से भरी बाल्टी दौडे और भिक्ष के ऊपर उडेल दिया। ऐसा करने की वज़ह जानकर भिक्षु अपनी हँसी चाहकर भी नहीं रोक पाया। उसने उस अमीर आदमी से कहा - अगर तुम इतना तामझाम और ऊटपटांग उपाय करने की बजाय महज हरा चश्मा पहन लेते तो दीवारों, पेड़-पौधों और घर के दूसरे बर्तनों व सामानों को हरे रंग में रंगने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। तुम दुनिया को तो हरे रंग में पेंट नहीं कर सकते। हमें सिर्फ अपनी दृष्टि में बदलाव करने की ज़रूरत है, फिर दुनिया उसी रंग की दिखने लगती है।
हमें स्वदोष दर्शन, पर दोष वर्जन करना है। स्वयं के दोषों के दर्शन एवं उनके त्याग से ही हमें शांति मिलेगी। हमारे आस-पास सभी दोष रहित है पर हमारे में दोष है तो शांति प्राप्त नहीं होगी। हमें स्वयं को देखने के लिए पहले साधनों का प्रयोग करना होगा। बहिर्मुखी जीवन जीने की बजाय अन्तर्मुखी बनने का प्रयास करना होगा। चाहे कितनी ही बाधाएँ आए हमें पीछे नहीं मुड़ना है। हमें मंज़िल तक पहुंचे बिना, इष्ट तक पहुँचने से पूर्व तक साधन का त्याग नहीं करना है। हम एक बच्चे को खड़ा होना चलना सिखाते हैं, पर बच्चा गिर जाता है तो भी हम उसे खड़ा करके चलाना सिखाते हैं । यह कहते हैं कि परवाह मत करो। गिरने से मज़बूत होगा। यदि सिखाएँगे नहीं तो वह खड़ा कैसे होगा। जब व्यवहार में हम बाधा आने पर, अनेक संकटों के उपस्थित होने पर
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