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कमंडल थे।
मानव जीवन में पाने की पिपासा कभी शांत नहीं होती। तृष्णा एक ऐसा रोग है जो सारा सागर पी जाने के बाद भी शांत नहीं होती। यही कारण है कि चाहिए का चक्कर कभी शांत नहीं होता और अन्त में चाहिए की चक्की मनुष्य को पीस कर राख कर देती है। इसलिए हे प्राणी, यदि दो पाटों के बीच में पिसने से स्वयं को बचाना चाहता है तो ' और चाहिए' का चक्कर छोड़ दे क्योंकि यह सारी समस्याओं की जड़ है । जिस दिन तुम चाहिए को छोड़ दोगे समझ लो तुम्हारा कल्याण हो जाएगा ।
जीवन की हर परिस्थिति में वीणा बजाने का काम वे ही कर पाएँगे जिनकी भावना एवं विचार उत्तम होंगे। वे ही अपने कर्म मल का क्षय कर सकेंगे। आत्मोन्नति की जिसके मन में चाह है उसका पथ पथरीला, कंटीला हो सकता है । क्योंकि उत्थान का मार्ग ही त्याग युक्त होता है । हम विश्लेषण करें, देखें संसार में, जिन्होंने भी विजय प्राप्त की है वे अपनी निस्पृहता, क्षमा, त्याग, बलिदान, सहिष्णुता, समन्वय आदि अनेकानेक गुणों के धारक रहे हैं।
हमारा जीवन नदी के प्रवाह की भाँति प्रति पल आगे बढ़ता जा रहा है । हमें प्रत्येक क़दम सावधानीपूर्वक रखना है। हम डगमगा नहीं जाए इसके लिए कुत्सित विचार, और कटुवाणी का त्याग करना है। यदि मानव जीवन में हमारे क़दम डगमगा गए तो अन्य कोई भी भव हमें मुक्ति मंज़िल की ओर नहीं ले जा सकता है।
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