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मन के घोड़े पर सवारी करें, पर कहीं ऐसा नहीं हो कि वह हम पर सवार हो जाए।
ब्रह्मा वाहन हंस किया, विष्णु गरुड़ असवारी रे। शिव का वाहन बैल बना है, मूषक गुणधारी रे।
मन वाहन पर बैठे विरला, वा नर की बलिहारी रे॥ जो मन के घोड़े पर सवार होने की कला जानता है वही वास्तव में साधक है, विद्वान है, सार्थक जीवन का मालिक है। __ । सिकन्दर विश्व विजय करने की महत्त्वाकांक्षा से निकला। असाधारण प्रतिभा और योग्यता का धनी और निरंतर विजयी होने के कारण उसके दम्भ में वृद्धि हो गई थी। एक तरफ दम्भ और दूसरी तरफ विजय प्राप्त करने का उन्माद में पागल बना वह हज़ारों नगरों और गाँवों को ध्वस्त करता गया। निर्ममतापूर्वक नरसंहार करते हुए अपार धन सम्पदा लूटी। अख़ुत सम्पदा का वह क्या करता? उसने अपने सैनिकों को भी मालामाल कर दिया।
एक बार वह एक ऐसे नगर में गया जहाँ के सभी पुरुष युद्ध में पहले ही शहीद हो चुके थे। स्त्रियाँ और बच्चे असहाय हो गए थे। सिकन्दर ने शस्त्रहीन स्त्रियों को देखकर मैं इनके साथ कैसे युद्ध करूँ। यह सोचकर उसने एक घर के सामने घोड़ा रोका। कई बार दरवाज़ा खटखटाने पर एक बुढ़िया ने घर का दरवाज़ा खोला।
बुढ़िया घर के भीतर गई और कपड़े से ढ़का थाल लेकर आई। उसने थाल को सिकन्दर के आगे कर दिया। सिकन्दर ने थाल लेकर भोजन करने के लिए उस पर से कपड़ा हटाया, पर उसने देखा कि थाल में भोजन की बजाय कुछ पुराने सोने के जेवर थे।
सिकन्दर ने क्रोध में कहा - बुढ़िया! तुम यह क्या लाई हो? क्या मैं इन सोने के गहनों को खाऊँगा? मैंने तो तुमसे रोटियाँ माँगी थी।
बुढ़िया ने बहुत ही विनम्रता से कहा- सिकन्दर, मैंने तेरा नाम लोगों के घर उजाड़ने में, लूटपाट करने में बहुत सुना था।आज तेरा साक्षात् दर्शन भी कर रही हूँ।मैंने यह भी सुना था कि सोना ही तुम्हारा भोजन है। इस भोजन को प्राप्त करने के लिए न मालूम तू कितनी ललनाओं की माँग पौंछता हुआ, माताओं की
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