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हैरानी से पूछा – आचार्य जी, यह बात तो हिसाब-किताब के अनुकूल नहीं हैं । मेरी समझ से भी एकदम परे है। काम कम होने पर क़ीमत ज़्यादा? आचार्य ने उत्तर दिया - काम कम कहाँ है ? पहले तुमने जो सीखा है उसे मिटाना, उसे भूलाना होगा तब फिर नए सिरे से सीखना प्रारंभ करना पड़ेगा। क्योंकि पहले से भरे हुए पात्र में कुछ भी और डालना असंभव है।
वह ज्ञान वास्तविक ज्ञान नहीं है जो आचरण में नहीं उतरा हो। ज्ञान का अर्थ है किसी वस्तु के आन्तरिक एवं बाह्य स्वरूप को जानकर तदनुकूल आचरण करना। यदि व्यक्ति अपने ज्ञान का जीवन में उपयोग नहीं कर सकता अथवा तदनुकूल आचरण नहीं करता है तो वह ज्ञान विकृत ज्ञान है, अधूरा ज्ञान है। मात्र पुस्तकीय ज्ञान ज्ञान नहीं है। वह तो हृदय में बैठना चाहिए, आत्मा में प्रविष्ट होना चाहिए। जहाँ ज्ञान हृदय में समाविष्ट नहीं होता है, ज्ञानेन्द्रियाँकमेन्द्रियाँ उस ज्ञान के विरुद्ध काम करती है वह ज्ञान वास्तव में अज्ञान की भूमिका वाला है, अविद्या है। वह मात्र आजीविका का साधन है। स्वार्थ की आदतों के चलते आज आदमी आदमी का ही घातक बन गया है। उसमें इंसान के साथ इंसानियत की भावना की बजाय अर्थ की भावना प्रधान हो गई है। गिरधर गोपाल गोस्वामी ने आदमी पर ठीक ही लिखा है -
धीरे-धीरे आदमी को जानता है आदमी। ___ अपने मतलब के मुताबिक, धीरे-धीरे आदमी को मानता है आदमी।
बात फूलों की शुरू कर, फिर जड़ों से, धीरे-धीरे आदमी को काटता है आदमी॥ हम क़दम चलते हुए को,
नींद की गोली खिलाकर, धीरे-धीरे आदमी को लांघता है आदमी॥ दोस्ती के आईने से, जब निकल जाता है, मतलब धीरे-धीरे आदमी को तोड़ता है आदमी॥
तीरों तलवारों से ही नहीं,
प्यार से भी, धीरे-धीरे
आदमी को मारता है आदमी॥ 32 |
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