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में मिले पत्र का आशय था - टिकट चैकर के कर्तव्य निर्वहन की सराहना तो की जाती है, किंतु रेल प्रशासन को ऐसे कर्मचारी की सेवाओं की ज़रूरत नहीं है, जो अपने पिता के प्रति भी अनुदार और अशिष्ट हो ! यदि वह स्वयं की जेब से किराया भर देता, तो बतौर कर्मचारी और पुत्र दोनों रूप में नैतिकता सिद्ध कर
सकता था ।
ऐसी नैतिक शिक्षा किस काम की जो माँ-बाप का आदर करना न सिखाए । शिक्षा जीवन का विवेक सीखने की कला है मात्र पुस्तकों का ढेर शिक्षा नहीं है । विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय जाना मात्र शिक्षा प्राप्त करना नहीं है। अपितु संसार के साथ, मानव मात्र और क्रिया कलापों के साथ तालमेल कैसे बैठे, कैसे समन्वय हो यह शिक्षा है । हमारे विचार, आचार और व्यवहार कैसे बेहतर बनें शिक्षा का मुख्य उद्देश्य यही होना चाहिए। उसके द्वारा मनुष्य अपने शरीर, मन, मस्तिष्क और विभिन्न इन्द्रियों का सदुपयोग करना सीख जाए। क्रिया हीन ज्ञान की कोई कीमत नहीं होती है – 'ज्ञानं भारः क्रिया बिना ।' अर्थात् आचरण रहित ज्ञान मस्तिष्क का भार है । क्योंकि कोरा ज्ञान व्यक्ति को अभिमानी बना देता है। जिसके कारण उसका ही अभिमान उसके आचरण की पूर्णता में, ज्ञान की पूर्णता में बाधक बन जाता है ।
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जब
संगीताचार्य के पास एक आदमी संगीत में निपुणता प्राप्त करने की इच्छा से आया और उनसे बोला, आप संगीत के महान आचार्य हैं और संगीत कला प्राप्त करने में मेरी गहरी रुचि है । इसलिए आप से निवेदन है कि आप मुझे संगीत की शिक्षा प्रदान करने की कृपा करें। संगीताचार्य ने कहा तुम्हारी इतनी उत्कृष्ट इच्छा है मुझसे संगीत सीखने की, तो मेरे घर आ जाओ, मैं सिखा दूँगा । उस आदमी ने आचार्य से पूछा कि इस कार्य के बदले उसे क्या सेवा करनी होगी। आचार्य ने कहा कि कोई ख़ास नहीं मात्र सौ स्वर्ण मुद्राएँ देनी होगी ।
सौ स्वर्ण मुद्राएँ है तो बहुत ज़्यादा और मुझे संगीत का थोड़ा बहुत ज्ञान भी है, पर ठीक है मैं सौ स्वर्ण मुद्राएँ आपकी सेवा में प्रस्तुत कर दूँगा । उस आदमी ने कहा। इस बात पर संगीताचार्य ने कहा – यदि तुम्हें पहले से संगीत का थोड़ा-बहुत ज्ञान है तब तो तुम्हें दो सौ स्वर्ण मुद्राएँ देनी होगी। जिज्ञासु ने
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