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जिस विश्व को हम देख रहे है, वह बहिरंग विश्व है, जिसकी अगम्य समस्याओ के समाधान अंतरंग विश्व में निहित है। जब तक आत्मा को अंतरंग विश्व के दर्शन न हो, तब तक वह चक्षुरहित होती हुई भी वास्तव में अंध रहती है । तीव्र बुद्धि होते हुए भी मूर्ख रहती है। अंतरंग विश्व से अपरिचित आत्मा बहिर्दृष्टि से घटनाओ का अर्थघटन एवं व्यक्तिओ का मूल्यांकन करती है। अत: चिंता, संताप, कलह, असंतोष एवं अनेक शारीरिक-मानसिक रोग एवं आत्मघात तथा दुर्गति जैसे भयानक फल को प्राप्त करती
उपमिति कथा आत्मा के इस अनादि के अंधत्व को दूर करती है। मानों एक दिव्य अंजन करती है, और आत्मा को अंतरंग विश्व का साक्षात्कार होता है । एक और अनंत गुणसमृद्धि का दर्शन होता है तो दुसरी और अनंत दोषदावाग्नि दृष्टिगोचर होता है। अंतरंग दोषो में सर्व दुःखो के मूल साक्षात् होते है, एवं अंतरंग गुणो में सर्व सुखो की प्रापकता प्रत्यक्ष होती है। विश्व का प्रत्येक जीव वास्तव में शुद्ध स्वरूपी है। आत्मा और परमात्मा के बीच वास्तव में कोई भी अंतर नहीं है। जैसे कुशल शिल्पी शिला में ही शिल्प का दर्शन करते है, उसी तरह ज्ञानी आत्मा में ही परमात्मा का दर्शन करते है ।
एक था प्रदर्शन । लोगो ने एक अद्भुत शिल्प को घेर लिया था । जीवंत सा था वह शिल्प । लोग 'अद्भुत...अद्भुत' बोल रहे थे। उसी समय उस के शिल्पी का वहाँ आगमन हुआ । किसी ने लोगो को उनका परिचय दिया । अभिनंदन एवं प्रशंसा की मानों वर्षा हो गयी। तथापि शिल्पी की नम्रता आश्चर्यजनक थी। किसी जिज्ञासुने विस्मय से प्रश्न किया, 'आप ने ऐसा अद्वितीय सर्जन कैसे किया ?' शिल्पी ने वही नम्रता के साथ उत्तर दिया - 'मैंने सर्जन किया ही नहीं.' सब की आँखो में प्रश्नार्थ है....शिल्पी ने स्पष्टता की - 'मैने तो केवल विसर्जन किया है। शिल्प तो शिला में पहले से ही हाजिर था, मैने अवशेष का विसर्जन कर दिया, शिल्प स्वयं प्रकट हो गया ।
अवशेष दूर हो जाये, तो शिला ही शिल्प है । दोष दूर हो जाये, तो आत्मा ही परमात्मा है। जीवन का सार्थक्य सर्जन में नहीं, विसर्जन में है। अज्ञानी समग्र जीवन को संपत्ति, साधन आदि के सर्जन में लगा देता है, और अंत में सब कुछ छोडकर असहायतया बिदा होता है। साथ में होते है केवल दोष । भयानक दुःखमय होता है उसका परलोक । बोये है नीम, तो फिर आम की आशा व्यर्थ है। ज्ञानी समजते है, कि विसर्जन जैसा सर्जन कोई भी नहीं । दोषो का विसर्जन ही आत्मगुणो का सर्जन है । उपनिषदो का संदेश याद आता है - उपाधिनाशाद ब्रह्मैव ।
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