Book Title: Arsh Vishva
Author(s): Priyam
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 131
________________ समाधान - यह शंका केवल उनकी है, जिन्होंने शास्त्रो का सम्यक् अध्ययन नहीं किया । संसारी या त्यागी तभी जीवन में सुखी हो सकते है। जब वे अपनी विषयवासना पर अल्प / अधिक विजय पा सके । अतः शास्त्रकारो ने विषयसुख का पर्दाफाश शास्त्रो में किया है, एवं संसार की असारता का प्रत्यक्षदर्शन कराया है । यतः मनुष्य अपने मन को काबू में रख सके, अपनी प्राप्त सामग्री में संतोषपूर्वक जी सके एवं इर्ष्या, वासना, हवस, क्रोध आदि दोषो का शिकार न बने । ऋषि-मुनिओं का एक आचार है कि वे उपदेश देते समय अपनी दृष्टि पुरुष - सभा पर रखते है । इसमें पक्षपात नहीं, किन्तु दृष्टिसंयम है । अतः पुरुष को विरागदेशना देते हुए वे नारी के विषय में जो उपदेश देते है, उस का तात्पर्य यही है, कि वह अपनी कामवृत्ति को अंकुश में रखे । अपनी पत्नी का द्रोह न करे, एवं कामवासना की आग में अपने सदाचार, सद्गुण, शील एवं नैतिकता को भस्मीभूत न कर दे । उदाहरण के रूप में परनारी झहरी छुरी, कोइ मत लाओ अंग । रावन के दश शिर गये, पर नारी के संग ॥ संत कबीरजी का यह दोहा है। इस का तात्पर्य यह है कि - हर पति अपनी पत्नी को वफादार रहै । जो तात्पर्य नही समजता वह ऐसा भी कह सकता है की शास्त्रोने समस्त नारी जाति को विषयुक्त छुरी कह कर उस का अपमान किया है। मगर ऐसी बात है ही नहीं । ऋषि मुनि पुरुष को नजर में रख के उपदेश देते थे । मगर वे नारी की उपेक्षा नही करते थे, साथ साथ में यह भी स्पष्टता कर देते थे, कि मैं जो बात पुरुष को नारी के बारे में कर रहा हूँ, वही बात नारी को पुरुष के बारे में भी समज़ लेनी है । मूलशुद्धि ग्रन्थ में कहा है। तं च तुल्लं नराणं पि, जं इत्थीणं सवित्थरं । दंसित्ता दोसजालं तु, दंसियं समए समं ॥१७४॥ निंदा न तो नारी की है, न तो पुरुष की है। निंदा नो है दोषो की । पुराणो में, उपनिषदो में या अन्य शास्त्रो में जहा भी यह प्रश्न है, वहा यही तात्पर्य समज़ना चाहिये। जीवमात्र को शिवस्वरूप देखनेवाले शास्त्रकार भला किसी की निंदा कैसे कर सकते है। निंदा केवल दोषो की । प्रशंसा केवल गुणो की । फिर वे गुण स्त्री में हो, या पुरुष में, गुण है, तो प्रशंसा है। शंका - तो फिर शास्त्रकारो ने स्त्री के गुणो की प्रशंसा क्यों नही की ? १३१

Loading...

Page Navigation
1 ... 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151